Skip to main content

ये नाम नहीं, पहचान है – पार्ट 1

हम क़स्बाई लोगों के बीच एक बड़ी दिलचस्प आदत देखने में आती है, वो है किसी को भी नया नाम देने की या उसके नाम को बिगाड़ने की। अब मां-बाप ने चाहे अपने बच्चों को कितने ही ख़ूबसूरत नाम क्यों न दिए हों, उनके साथ रहने या ख़ेलने वाले लड़के उनका नया नाम रख देते हैं, कई बार तो एक-एक लड़के के कई-कई नाम पैदा कर दिए जाते हैं। मेरी यादों में भी कई ऐसे दिलचस्प नाम उभरकर आते हैं, जिन्हें सुनकर किसी नए आदमी को कभी मालूम नहीं चलेगा कि आख़िर ये नाम कैसे सामने आया। अब ज़रा आप तसव्वुर करिए कि कुछ लड़के मैदान में क्रिकेट ख़ेल रहे हैं। बॉलर पूरे जोश से दौड़ते हुए आता है और बॉल फेंकता हैं। अपनी तरफ आती बॉल देखकर बैट्समैन भी बल्ला चलाता है और तभी बल्ले की कन्नी लगती हैं और बॉल तेज़ी से थर्डमैन की ओर निकल जाती है। भागती बॉल को देखते हुए विकेटकीपर, सारे फील्डर्स और ख़ुद बॉलर भी थर्डमैन की जानिब खड़े लड़के की तरफ देखते हुए चीख-चीखकर कहने लगता हैं – ‘अबे चाय पकड़... बॉल पकड़... साले चार रन नहीं जाने चाहिए।’ अब अगर आप मैदान से बाहर खड़े हैं तो चार रन की फिक्र छोड़ेंगे और सोचने बैठ जाएगे कि साला थर्डमैन के फील्डर को चाय क्यों बुलाया जा रहा है? भला ये भी कैसा नाम हुआ? आप फौरन साइड में खड़े शख़्स से पूछेंगे कि भैय्या सभी प्लेयर उस लड़के को चाय क्यों कह रहे हैं? चाय उर्फ पवन उर्फ गुड्डु बड़ा ही दुबला-पतला सा लड़का हुआ करता था हमारे मुहल्ले में। बड़ा मन करता था उसका कि वो भी बड़े बच्चों के साथ क्रिकेट खेले। उम्र में छोटा था इसलिए उसे साथ रख लिया जाता और उसका काम होता था दूसरे छोटे बच्चों की तरह बारी-बारी से थर्डमैन पर फील्डिंग करना। चाय का असल नाम था पवन और घर पर उसे सभी प्यार से गुड्डु बुलाते थें। एक बड़ी मशहूर चाय का ब्रैंड तो याद ही होगा आपको.. गुडरिक। उन दिनों हर कहीं बड़ी एड हुआ करती थीं गुडरिक चाय की। तो हमारे पवन का प्यारा सा नाम गुड्डु न जाने कब मुहल्ले के हमउम्र लड़कों के बीच अचानक से गुडरिक हो गया। आते-जाते हर कोई उसे गुडरिक-गुडरिक बुलाने लगा और फिर जैसा कि हर बिगड़े नाम के साथ होता है, ये नाम भी मशहूर हो गया। बेचारा कभी दुकान तक जाते नज़र आ जाए तो लड़के बोल पड़ते - ‘ओए गुडरिक, कहां जा रहा है?’ कभी वो साइकिल चलाते-चलाते गिर पड़ता तो साथ वाले बच्चे पूछते – ‘अबे गुडरिक, लगी तो नहीं?’ भैय्या, गुडरिक तो फिर भी ठीक था, कम से कम वो जाना-माना ब्रैंड था। लेकिन एक रोज़ तो हद ही हो गई... मैदान पर गुडरिक से गेंद नहीं पकड़ाई तो साथ वाले लड़के ने झिड़कते हुए कहा ‘साले चाय, हमेशा फील्डिंग पोकता है।’ भाईसाहब, फील्डिंग को तो छोड़िए, जैसे ही बाकी लड़कों के कानों में ये नया नाम पड़ा सब पेट पकड़-पकड़कर हंसने लगे। अब ये बताने की ज़रूरत नहीं कि उसके बाद पवन उर्फ गुड्डु उर्फ गुडरिक के साथ एक और उर्फ जुड़ गया था... वो था उर्फ चाय। अब बेचारा पवन अपनी नानी के साथ बाज़ार जाए या नाना के साथ सड़क तक, उसे देखते ही लड़के बोल पड़ते ‘ओए चाय, कहां जा रहा है?’ नाना-नानी रूककर हैरानी से देखने लग जाते और वो बेचारा भी बड़ी अजीब सी शक़्ल बनाकर रह जाता। मुझे याद है कई बार चाय नाम से बुलाए जाने से चिढ़कर उसने अपने कुछ दोस्तों से झगड़ा भी कर लिया था। पहले-पहल तो उसके घरवालों ने भी उसके बिगड़ते नामों पर सभी को बड़ा हड़काया, लेकिन समय के साथ-साथ उसके घरवालों ने भी उसके सारे नाम कुबुल कर लिए थें।
चाय सॉरी पवन से कई बरसों से मुलाक़ात नहीं हुई है। मैंने सुना है कि वो टीचर बन चुका हैं और बच्चों को पढ़ाता है। कभी-कभी सोचता हूं कि अगर कभी भरी हुई क्लास में उसके किसी पुराने जानने वाले ने उसे चाय कहकर पुकार लिया तो वो क्या करेगा? और क्या करेगा, मुस्कुरा देगा। ऐसा ही तो होता हैं, हम हर उस नाम पर जिससे बचपन में चिढ़ते रहे थें, अब याद करे तो मुस्कुरा ही तो देते हैं। अब साला कौन सा पुराने लोग बचे रह गए हैं ज़िंदगी में और कौन है साथ में, जो बार-बार बचपन के नाम से चिढ़ाता रहे। मैं जानता हूं, ये सब पढ़ने के बाद आप भी अपने बचपन में जाकर अपने और अपने पुराने दोस्तों के मज़ेदार नाम याद करने लगे होंगे। तो याद करिए, क्या पता आपको भी कुछ मज़ेदार और दिलचस्प नाम याद आ जाए और उनसे जुड़े क़िस्से आपके चेहरे पर मुस्कान ले आए। वैसे भी गुज़रे दौर को याद करना सेहत के लिए बड़ा ही अच्छा होता है। (“ये नाम नहीं, पहचान है” इस संस्मरण की सीरिज में शोभापुर, पाथाखेड़ा और सारनी में मशहूर कुछ अजीब-ओ-ग़रीब नामों पर बातें करेंगे। आपको भी कुछ नाम याद आएं तो ज़रूर शेयर करें... शुक्रिया)

Comments

Popular posts from this blog

हिंदी मीडियम - पार्ट 1 (कापसे सर और उनका डर)

ये 1994-95 के सीजन की बात है... मैं 6वीं क्लास में पढ़ रहा था। हमारी क्वार्टर के पास ही एक सरकारी स्कूल था जिसे पूर्वे सर का स्कूल कहा जाता था। झक सफ़ेद कपड़े पहनने वाले पूर्वे सर थोड़ी ही दूर स्थित पाथाखेड़ा के बड़े स्कूल के प्रिंसिपल केबी सिंह की नक़ल करने की कोशिश करते थें.. लेकिन रुतबे और पढाई के स्तर में वो कहीं भी केबी सिंह की टक्कर में नहीं थें। अगर आपने कभी किसी सरकारी स्कूल को गौर से देखा हो या वहां से पढाई की हुई हो तो शायद आपको याद आ जाएगा कि ज़्यादातर स्कूलों में ड्रेस कोड का कोई पालन नहीं होता। सुबह की प्रार्थना से ग़ायब हुए लड़के एक-दो पीरियड गोल मारकर आ जाया करते हैं। उनकी जेबों में विमल, राजश्री की पुड़िया आराम से मिल जाती है और छुट्टी की घंटी बजते ही बच्चे ऐसे क्लास से बाहर निकलते हैं जैसे कि लाल कपड़ा दिखाकर उनके पीछे सांड छोड़ दिए गए हो.. ऐसे ही एक सरकारी स्कूल से मैं भी शिक्षा हासिल करने की कोशिश कर रहा था... सितंबर का महीना लग गया था... जुलाई और अगस्त में झड़ी लगाकर पानी बरसाने वाले बादल लगभग ख़ाली हो गए थे। तेज़ और सीधी ज़मीन पर पड़ती चमकती धूप के कारण सामने वाली लड़कियों की क

ख़तरनाक है देशभक्ति फिल्मों के प्रति दर्शकों की उदासीनता

करीब 10 महीने बाद ब्लॉग लिखने बैठा हूं। आप समझिए कि बस इस कदर मजबूर हुआ कि रहा नहीं गया। बीते रविवार मुंबई में था जहां मैं आशुतोष गोवारिकर की फिल्म ‘खेलें हम जी जान से’ देखने पहुंचा। गौरतलब है कि नौकरी छोड़ने के बाद मैने फिल्में देखना कम कर दिया है। बहुत सारे फिल्म पंडितों के विचार जानने और समीक्षाएं पढ़ने के बाद मैने फिल्म देखी। अफ़सोस केवल अजय ब्रह्मात्मज जी ने ही अपनी समीक्षा में फिल्म की प्रशंसा की। वहीं अंग्रेजी भाषा के सभी फिल्म समीक्षकों से तो आशुतोष की भरपूर आलोचना ही सुनने और देखने को मिली। फिल्म के निर्देशन, पटकथा, संवाद और लंबाई को लेकर सभी ने अपनी ज़ुबान हिला-हिला कर आशुतोष को कोसा। ये आलोचक भूल गए कि जो विषय परदे पर है वो अब से पहले अनछूआ था। जो किरदार आंखों के सामने हैं उनसे ये फिल्म पंडित खुद भी अंजान थे। क्या ये बड़ी बात नहीं कि श्रीमान गोवारिकर ने ऐसे ग़ुमनाम नायकों को सामने लाने की कोशिश की जिनसे हमारा परिचय ही नही था। सूर्ज्यो सेन का ज़िक्र इतिहास की किताबों में चार लाइनों से ज़्यादा नहीं है। बाकी के किरदार तो छोड़ ही दीजिए... क्योंकि इनसे तो सभी अनजान थे। दर्शक भी इ

ये नाम नहीं, पहचान है - पार्ट 6 (धोखाधड़ी)

अभी कुछ दिनों पहले की बात है जब तांत्रिक चंद्रास्वामी अचानक इस दुनिया से चलते बने। बहुत लंबे समय तक गुमनाम ज़िन्दगी जीने के बाद एक रोज़ मौत उन्हें अपने साथ ले गयी। 90 के दशक में ऐसा कोई दिन नहीं जाता था जब टीवी या अख़बार में उस शख़्स का ज़िक्र न उठा हो। उनके साथ जुड़े तमाम विवादों को किसी छलनी से छाना जाए तो एक विवाद सबसे मोटे तौर पर नज़र आता है और वो है लक्खूभाई पाठक घोटाला, जिसे उस वक़्त मीडिया में लक्खूभाई पाठक धोखाधड़ी मामला भी कहा गया। ख़ैर ये कोई राजनितिक पोस्ट नहीं है और न ही मैं किसी विवाद पर बात कर रहा हूँ बल्कि इसी लक्खूभाई केस में छुपी है एक और दिलचस्प नाम की कहानी जो बचपन में हमारे लिए रोज़ाना के मस्ती-मज़ाक की वजह बना। मेरे क्वार्टर के बिल्कुल पीछे वाली ब्लॉक में एक लक्खू अंकल रहा करते थें। छोटे कद के, मोटे से मगर हरदम मुस्कान लिए हुए। बड़े ही अलहदा किस्म के थे लक्खू अंकल.. मस्तमौला तबीयत के मालिक, खूब खाने-पीने और हमेशा मज़ाक-मसखरी करते रहने वाले। मोहल्ले-पड़ोस में कहीं कोई उत्सव हो या सड़क से गुज़रती बरात या कोई जुलूस.. अंकल फौरन वहां पहुंचकर नाचने लगते और ऐसे मस्त होकर नाचते कि