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हिंदी मीडियम - पार्ट 2 (फाल्के सर और वो थप्पड़)

पैंतीस-चालीस या उससे भी कुछ ज़्यादा बच्चों से भरी हुई क्लास.. उनमें से हर एक की गोद में खुली हुई इंग्लिश की बुक और उसका लेसन नंबर 3 या 4... वही जॉन, डेविड, राम और लीला टाइप किरदारों के बहाने अंग्रेजी के बेहद घिसे हुए और उबाऊ वाक्यों का पाठ... कुछ बच्चे सामने लोहे की फोल्डिंग कुर्सी पर बैठे फाल्के सर की तरफ गौर से देख रहे हैं और कुछ अपनी क़िताब में दो आंखें गढ़ाए फिरंगियों की ज़ुबान के अजीब उच्चारण और उन शब्दों की स्पेलिंग को समझने की कोशिश कर रहे हैं.. इधर मेरे बाएं कान में खुजली मची हुई है और मैं अपने नए खरीदे हुए रेनॉल्ड्स पैन के नीले ढक्कन से खुजली शांत कर रहा हूँ... क्लास के बाहर नज़र दौड़ाने पर मैं वही रोज़ जैसा माहौल पाता हूँ... स्कूल के साथ वाले नाले में बेशरम के पौधे फिर तेज़ी से बढ़ने लगे हैं.. उन पर हल्क़े नीले रंग के मगर फिर भी बदसूरत से फूल झूल रहे हैं.. कई बार इसी बेशरम की हरी डंडियों से मास्साब हमारी हथेलियां और पुट्ठे लाल कर चुके हैं.. सच तो यह कि मुझे इस हरी कच्च बेशरम से बेहद कोफ़्त होती है.. (क्रिकेट खेलते हुए हमारी कितनी ही गेंदें उस बेशरम के नीचे जमे गंदे बदबूदार कीचड में जाकर ग़ुम हो चुकी हैं।) उस नाले के ठीक ऊपर से होकर गुजरने वाले बिजली के तार पर बहुत सारे कौएं बैठे हैं जो एक के बाद एक काएँ-काएँ करते हैं और फिर ख़ुद चुप हो जाते हैं.. स्कूल के मैदान में स्काउट की नीली ड्रेस पहनी हुई कुछ लड़कियां किसी निर्देश के इंतज़ार में हैं.. क्योंकि मुझे लड़कियों को देखना ज़्यादा अच्छा लगता है, इसलिए मैं क़िताब, कौओं, बेशरम के पौधों और बिजली के तारों से अलग उन लड़कियों को देखने लगता हूँ।
वैसे तो हमारे वो मास्साब भी क्लास में हैं मगर मुझे कोई डर नहीं.. दोपहर सवा तीन बजे का टाइम उनके ऊँघने का होता है और वही कर रहे हैं। उस कमरे में बैठा हर लड़का कहीं न कहीं मगन है.. मगर तभी अचानक से एक धमाका होता है.. जाना-पहचाना धमाका.. और हम सब एक-दूसरे का मुंह देखने लगते हैं.. साइड में बैठा एक दोस्त आँखों से मास्टरजी की तरफ इशारा करता है.. उसके साथ ही सारे बच्चे मास्टर की ओर देखते हैं.. जो खुद अपने द्वारा हुए धमाके से जाग उठे हैं। वो इस बार बिना झिझके.. बिना शरमाये.. बिल्कुल ही बेधड़क होकर पादते हैं और हम बच्चे दोबारा से एक-दूसरे की शक़्ल देखने लग जाते हैं। वैसे तो मास्टरजी का यूं खुलेआम निडर होकर पादना हम 11-12 बरस के बच्चों के लिए अचरज और हास्य का विषय है, पर कमबख़्त हँसे कौन? किसे अपना नाज़ुक पिछवाड़ा और मुलायम गाल सूजवाने हैं? इसलिए किसी तरह चेहरा नीचे कर और दांत पीसकर अपनी हंसी दबाई जाती है ताकि हमारे मास्साब किसी को हँसते हुए न देख लें.. मेरी हालात तो और भी ख़राब है क्योंकि ज़बरदस्ती हंसी रोकने से मेरे पेट में झटके पड़ने लगे हैं.. गुरूजी की नज़र एक-एक बच्चे से होकर गुज़रती है, ये देखने के लिए कि कहीं कोई हंस तो नहीं रहा.. किसी की मज़ाल है जो कहीं हल्की सी भी हंसी छूट जाए... थोड़ी देर बाद माहौल कुछ बदलता है और तभी पीरियड एन्ड होने की घंटी बजती है.. हमारे मास्टरजी आराम से उठते हैं और जाते-जाते अगले दिन के होमवर्क की लंबी चौड़ी लिस्ट बना देते हैं... उनके जाते ही हम सारे बच्चे ज़ोरों से हंसना शुरू करते हैं.. कोई अपना पेट पकड़कर तो कोई सामने वाले लड़के का कन्धा थामकर हंस रहा होता है.. सारा तमाशा तब तक चलता है जब तक कि अगले मास्टर साहब नहीं आ जाते.. फाल्के सर की हाइट मध्यम से थोड़ी ज़्यादा होगी.. गेंहुआ रंग था उनका और दाढ़ी मूंछ वो एकदम सफाचट रखते थें। ज़्यादातर मौकों पर सफ़ारी सूट पहने नज़र आते और उनकी पर्सनैलिटी में सबसे ख़ास थी उनकी आवाज़.. जो बिल्कुल साफ़ और बुलंद थी। "15 अगस्त", "26 जनवरी" और "एनुअल डे" जैसे मौकों पर हर तरह की घोषणा फाल्के सर ही किया करते थें। वैसे आम दिनों में भी प्रेयर या पीटी के दौरान बच्चों को संबोधित करने के लिए उन्हीं की आवाज़ का इस्तेमाल किया जाता। मैंने तो कई बार देखा कि प्रेयर में दौरान बातचीत में मस्त बच्चों पर जब किसी टीचर का ज़ोर नहीं चलता था तब फाल्के सर की आवाज़ गूँज उठती और सारे लड़के ख़ुद-ब-ख़ुद लाइन में सेट हो जाते.. इसके लिए उन्हें माइक या लाउड स्पीकर की ज़रूरत नहीं होती थी। फाल्के सर को मैंने पहली बार तब देखा था जब मैं प्राइमरी स्कूल में था.. वो मिडिल स्कूल के बच्चों को पढ़ाते थे और पढ़ाते क्या थें, बस समझिये कि धमकाते थें। कभी फाल्के सर के स्टूडेंट रहे हमारे मनोज नागले भैया बड़ी दिलचस्पी के साथ फाल्के सर के पढ़ाने और पीटने का अंदाज़ बयां करते हैं। दरअसल मनोज भैया की क्लास को फाल्के सर मैथ्स पढ़ाया करते थें। जब भी क्लास में आते किताब से किसी एक चैप्टर का एक सवाल उठाकर उसे ब्लैकबोर्ड पर सॉल्व करके दिखा देते और फिर कहते - "देखो बेटा, मैंने एक सवाल हल करके दिखा दिया है। अब बाकी के सवाल यही वाला फॉर्मूला लगाकर हल कर लेना है.. कर लोगे न??" अब बेचारे बच्चे क्या बोलते हैं ऐसी सिचुएशन में.. यही की हाँ कर लेंगे सर.. इतना सुनते ही फाल्के सर फिर से बोल पड़ते- "कल इस चैप्टर के बाकी सारे सवाल हल करके ले आना मैं चेक करूँगा.." अगले दिन बच्चे गाइड की मदद से सारे सवाल सॉल्व कर अपनी कॉपी सामने रख देते.. और सर बहुत अच्छे.. वैरी गुड कहते हुए नोट बुक पर अपने लाल स्याही से राईट का निशान मारते हुए साइन करतेजाते। इस तरह से 20-22 चैप्टर्स की किताब महीने भर में ख़त्म हो जाती और फिर रिविज़न के नाम पर यही प्रक्रिया दोहरायी जाती। सर की एक आदत बड़ी मशहूर थी.. उनका बड़ी ईमानदारी से ये कहना कि - "देखो अगर किसी को कोई सवाल समझ न आया हो तो बताओ.. बाद में मैं कोई बहाना नहीं सुनूँगा.." अव्वल तो कोई लड़का हाथ उठाकर ये कहता ही नहीं कि उसे फलाना सवाल समझ नहीं आया और जो कोई कभी पूछ लेता तो फाल्के सर बोल उठते- "अबे नालायक.. इन सब लोगों को सब समझ आ गया और तुझे नहीं आया..? मतलब कि तेरा ध्यान ब्लैकबोर्ड पर होता ही नहीं है.. या तो फिर तेरे इस गोबर दिमाग़ में गणित घुसती ही नहीं है।" बेचारा सवाल पूछने वाला लड़का अपनी इतनी बेइज़्ज़ाती के बाद दोबारा से कभी सवाल पूछने खड़ा नहीं होता। वो भी बाकी लड़कों की तरह गाइड की मदद लेकर अपनी नोटबुक भर लेता। जब एक शिक्षक ही अपने स्टूडेंट से ये कह दे कि वो गोबर दिमाग़ है और मैथ्स उसकी समझ से बाहर है तो फिर उस बच्चे का हाल क्या होगा यह सोचा जा सकता है। वो ये मान लेगा कि गणित कोई बहुत ऊँचा विषय है जो उसकी हद से बहुत बाहर है या फिर मैथ्स का ज़िक्र आते ही घबरा उठेगा और आसान से सवाल सॉल्व करने की बजाय वो उन्हें रटने की कोशिश करेगा जो कि बहुत ही गलत तरीका है।
बच्चों को पीटने या कह ये लीजिये कि बेइज़्ज़त करने का सर के पास बड़ा अनोखा तरीका था.. वो सज़ा देते वक़्त सामने वाले लड़के की पतलून को उसकी बेल्ट से पकड़ लेते.. और उसे झटके से आगे की ओर खींचते और फिर उसी रफ़्तार से पीछे धकेलते.. खींचने और धकेलने का ये ख़ेल चलता रहता और फिर अचानक से वो उस बच्चे को धकेलते हुए उसकी बेल्ट छोड़ देते.. सामने वाला अपना बैलेंस खोकर कभी ज़मीन पर गिर पड़ता तो कभी दीवार से जा टकराता.. आज सोचता हूँ तो बड़ा अफ़सोस होता है और ग़ुस्सा भी बहुत आता है कि हमारे वक़्त पढाई के नाम पर किस क़दर ज़ुल्म ढाया जाता था। मेरी क्लास में एक लड़का हुआ करता था.. राजेश या फिर राकेश नाम का। बड़ा बदमाश और अजीब तरह का प्राणी था.. कमीनों टाइप की मंद हंसी होती थी उसके चेहरे पर और इतनी पक्की हंसी की मास्टरजी उसे पटक-पटक कर धो डाले तब भी नहीं जाती थी.. वो लड़का कब क्या कर जाए कुछ पता नहीं होता था। एक रोज़ लंच टाइम ख़त्म होने से कुछ पहले ही मैं क्लास में चला आया.. दो-चार बन्दे पहले से अपनी जगह बैठे हुए अपनी-अपनी कॉपियों पर धड़ाधड़ पेन चला रहे थें.. साफ़ समझ आ रहा था कि उन सबने होमवर्क कम्पलीट नहीं किया है और अब मार से बचने की आख़िरी कोशिश कर रहे हैं.. मैं अपनी जगह आकर बैठ गया और मेरे बाकी दोस्तों के आने का इंतज़ार करने लगा.. इतने में राकेश अंदर आया.. अपने बाएं गाल पर हाथ रखकर रोते हुए। मैंने पुछा- "क्या हुआ भाई.. तू क्यों रो रहा है?" वो सवाल का जवाब दिए बिना मेरा हाथ पकड़कर मुझे कहीं ले जाने की कोशिश करने लगा। मैंने जब दोबारा पूछा तो वो रोते हुए बोला- "बेटा तूने मुझको मारा था न.. चल तुझे फाल्के सर बुला रहे हैं.." "अबे तेरा दिमाग़ ख़राब है.. मैंने तुझे कब मारा साले..?" फाल्के सर का नाम सुनते ही मैं घबरा गया था। वो इतने यकीन से कह रहा तब कि मैं ख़ुद सोच में पड़ गया और याद करने लगा कि मैंने कहीं उसे ग़लती से तो नहीं मार दिया.. वो मुझको साथ लेकर स्टाफ रूम तक आया और अपने आंसू पोंछते हुए बोला- "जा बेटा.. सर तेरा इंतज़ार कर रहे हैं.." इतना कहकर वो तो निकल लिया.. मगर मुझे अजीब सी मुसीबत में डाल गया.. स्टाफ रूम के सामने आते ही मेरे पैर झनझनाने लगे.. सिर से चलकर ख़ून नीचे पैरों में जमा होने लगा था.. कुछ समझ नहीं पड़ रहा था कि मैंने उसे कब और कहाँ मार दिया और अगर नहीं मारा तो उसने सर के पास जाकर झूठ क्यों बोला.. मैं अपनी इसी उधेड़ बुन में लगा हुआ था कि तभी प्यून भैया ने मुझे अंदर आने का इशारा किया.. भारी कदमों के साथ मैं कमरे में दाख़िल हुआ.. क्योंकि मैं बाहर धूप से होकर उस कमरे में पहुंचा था इसलिए मेरी आँखों को वहां एडजस्ट होने में 10-15 सेकंड्स का वक़्त लगा। जैसे ही मेरी नज़र साफ़ हुई मुझे सामने एक टेबल पर बैठे हुए फाल्के सर दिखाई दिए.. मैं फ़ौरन अपने दोनों कान पकड़कर उनके पास गया और उनके कुछ कहने से पहले ही बोल पड़ा- "सर मैंने उसे नहीं मारा सर.. वो एकदम झूठ बोल रहा है सर.." इसके आगे मैं कुछ कहता उससे पहले ही फाल्के सर के दाएं हाथ का ज़ोरदार थप्पड़ मेरे बाएं गाल पर पड़ा और मैं झटके से नीचे गिर पड़ा.. जब उठा तो मेरा उल्टा कान बिलकुल सुन्न पड़ गया और सेकेण्ड से भी कम समय में मेरा पूरा शरीर गर्म हो चुका था। तभी फाल्के सर बोले- "बेटा, पहले पूरी बात तो सुन लिया कर.. चल उठ और ये बता कि तेरा घर यहीं पास में हैं न..?" मैंने बिना बोले प्यून की तरफ़ देखा जो हाँ में अपनी गर्दन हिला रहा था। फाल्के सर ने आगे बढ़कर टेबल पर रखा जग उठाकर मुझे थमा दिया और कहा- "जा.. जाकर अपने घर से बढ़िया ठंडा पानी लेकर आ.." मैं बेबस, लाचार और कमज़ोर लड़का अपने हाथ में जग थामे बाहर निकल गया.. स्कूल में अक्सर सप्लाई का पानी ख़राब आता था और ऐसे में जिस छात्र का घर पास होता उसे अपने घर से पानी लेकर आना पड़ता.. अपने गाल को सहलाते हुए जब मैं बाहर निकल तो सामने वही राजेश या राकेश नाम का लड़का खड़ा हंस रहा था.. उसके बेहूदा से मज़ाक का हासिल मुझे पड़ा भारी-भरकम थप्पड़ था और मेरी तकलीफ़ उसे बड़ा मज़ा दे रही थी। 96-97 में मिडिल स्कूल पास कर लेने के बाद फिर कभी फाल्के सर से मुलाक़ात नहीं हुई.. और मैंने कभी मिलने की कोशिश भी नहीं की। सिर्फ फाल्के सर ही नहीं, मैंने अपने किसी भी टीचर से दोबारा मिलने की जहमत नहीं उठाई.. और ऐसा करने की कोई वजह भी नहीं दिखाई पड़ती.. ज़िन्दगी कोई हॉलीवुड फिल्म तो है नहीं, जहाँ पर हीरो अपने बचपन के शिक्षकों को तलाश कर उनमें अपने बीते दौर को ढूंढता है.. और हम ढूंढे भी तो क्या? घटिया स्तर की पढाई..? बीवी से झगड़कर आये हल्क़े शिक्षकों की बेवजह की मार..? या उनसे ट्यूशन लेने पर ही पास करने की उनकी धमकी..? मैं ऐसे सरकारी स्कूलों में रहे ऐसे कई मास्टरों को जानता हूँ जिन्होंने अपनी बरसों की नौकरी के दौरान सरकार से तनख्वाह तो पूरी ली है, मगर कभी ब्लैकबोर्ड पर एक शब्द लिखने के लिए चाक तक नहीं उठाई.. ख़ैर, उनके बारे में फिर कभी।

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