नमस्कार भाई लोगों.. क्या हाल है? ये नाम नहीं, पहचान है सीरीज का पिछला पार्ट मैंने एक साल पहले लिखा था। कुछ किस्से लगातार लिखने के बाद अचानक मैंने लिखना बंद कर दिया। वजह बस इतनी सी थी कि जॉब करते हुए कुछ अलग लिखने का टाइम ही नहीं मिल पाता। यादों को पन्नों पर उतारने में भी काफी वक़्त ख़र्च होता है और जिस तरह की ज़िन्दगी हम जी रहे हैं उसमें इतना वक़्त निकाल पाना बहुत मुश्किल है। काफी कोशिश के बाद दोबारा कीबोर्ड पर उंगलियां चला रहा हूँ तो चलिए एक पुराने किरदार की बात करते हैं जो हमारे बचपन से जुड़ा हुआ है।
फरवरी के महीने में बाबू (राजेश सरदार) शोभापुर आया हुआ था और काफी अर्से के बाद उससे मुलाकात हुई थी। किसी काम के सिलसिले में बाबू को पाथाखेड़ा जाना था और उसके साथ साथ मैं भी चल पड़ा। रास्ते में हॉस्पिटल तिराहे से पहले में हमें वो शख़्स नज़र आया जो कि हमारे बचपन की सबसे मजेदार यादों का हिस्सा है। अब जबकि चैंपियंस ट्रॉफी कुछ ही दिनों की दूरी पर है और 4 जून को हमें पाकिस्तान से भिड़ना है.. तो क्यों न उसी शख़्स की बात करें जिसे हम सब सक़लैन कहते है। सक़लैन भाईजान का असली नाम मुझे याद नहीं रहा है लेकिन आफताब को ज़रूर पता होगा।
बाबू और मैं कार से जा रहे थे कि तभी ड्राइव करते हुए उसकी नज़र सामने साइकिल से जा रहे एक बन्दे पर पड़ी। उसने झट से कहा "रिंकू वो देख सक़लैन..." मैंने लेफ्ट साइड में देखा.. वो सक़लैन भाईजान ही थें। बाबू को लगा कि वो कही ग़लत तो नहीं इसलिए उसने दोबारा कहा "वो सक़लैन ही था न.." मैंने जब हां में जवाब दिया तो वो अपने जाने पहचाने अंदाज़ में ज़ोर से हंसा। उसने कार साइड में रोकी। लेकिन तब तक हम तिराहे के पास पहुँच चुके थे। गाड़ी से उतरकर हम दोनों दोस्त सक़लैन भाईजान के आने का इंतज़ार करने लगे। भाईजान 90's के ज़माने की अपनी साइकिल पर अपने अधेड़ हो चले जिस्म का वजन खींचते हुए आ रहे थे। कुछ एक मिनट के इंतज़ार के बाद वो जब करीब आये तो मैंने बड़ी ज़ोर से लगभग उनका स्वागत करने के अंदाज़ में उन्हें रोका।
ब्रेक लगाते ही अपने सामने हमें खड़ा देख वो थोड़ा सोच में तो पड़े, मगर फ़ौरन ही उनकी आँखों ने मुझे पहचान लिया और वो अपनी साइकिल से उतरकर पूरे जोश के साथ मुझसे मिले। जी बिल्कुल, इतने बरस बाद भी सक़लैन मियां को मुझे पहचानने में दिक्कत नहीं हुई क्योंकि थोड़ी बहुत बदली हुई सेहत के बाद भी आँखों पर लगे चश्मे की वजह से मेरी शक्ल कुछ ख़ास नहीं बदली। लेकिन कभी दुबले पतले रहे बाबू को वो उसके नए बॉडी बिल्डर टाइप शरीर के साथ वो नहीं पहचान पाये। लेकिन जब उन्हें ज़ोर देकर याद दिलाया गया कि ये सरदार बाबू के बेटे हैं और उस क्वार्टर में रहते थें तब वो उसे पहचान गए। कुछ देर की मुलाकात में सक़लैन भाई और हम दोनों काफी जज़्बाती हो गए। पुराने दिनों.. ख़ासकर 90 के दशक के कुछ यादगार मैचों की याद आ गयी। सक़लैन मियां बोले कि अब न तो किसी के साथ क्रिकेट देखना अच्छा लगता है और न ही ये ख़ेल पहले जैसा मज़ा देता है।
सक़लैन भाईजान का नाम सक़लैन क्यों पड़ा इसका बड़ा दिलचस्प किस्सा है। उन दिनों भी भारत और पाकिस्तान के बीच किसी भी मैच को लेकर हफ़्तों पहले से माहौल बनना शुरू हो जाता था और मैच के दिन तो जैसे पूरे क़स्बे पर क्रिकेट का नशा चढ़ जाता। लोग टीवी से ऐसे चिपक जाते थें जैसे क्रिकेट मैच ख़त्म होते तक किसी बड़ी जंग का फैसला होकर ही रहेगा। शोभापुर एक कोल नगरी है और इसका फायदा ये था कि हमें बिजली मुफ्त मिलती थी लेकिन रोज़ाना कि बेवक़्त होने वाली कटौती बड़ा परेशान करती थीं।
चलिए इस नाम के पीछे के किस्से पर आते हैं। 1999 में पाकिस्तान की टीम भारत में टेस्ट सीरीज खेलने आयी थी। उसी सीरीज के चेन्नई टेस्ट की चौथी पारी में भारत 271 रनों का पीछा कर रहा था। वसीम और वक़ार दोनों ने मिलकर लगातार भारत के बल्लेबाजों को परेशानी में डाल रखा था, लेकिन महान सचिन तेंदुलकर एक छोर पर डटे हुए पाक के आक्रमण का सामना कर रहे थें।
सचिन की उस हिम्मत भरी पारी ने भारत को जीत के करीब ला दिया था। तभी बिजली कट गयी और हम सभी लोग घर से निकलकर याक़ूब भाईजान की दुकान पर पहुँच गए रेडियो पर कमेंटरी सुनने। सचिन बड़ी तेज़ी से भारत को लक्ष्य की तरफ ले जा रहे थें। उनके बल्ले से निकलते हर रन पर हम लोग तालियां बजाते और उत्सुकता के साथ अगली गेंद का इंतज़ार करते। तभी हमारे साथ बैठे क्रिकेट के पुराने कीड़े हमारे यही भाईजान बोल पड़े "बेटा अभी से खुश मत होओ.. अभी सक़लैन का कमाल बाक़ी है।" कुछ ही देर बाद सक़लैन मुश्ताक़ की एक गेंद सचिन ठीक से नहीं खेल पाये और वसीम अकरम के हाथों कैच थमाकर आउट हो गए। एकदम से वहां सन्नाटा सा हो गया और हम सभी एक दूसरे का मुंह देखने लगे। कहने की ज़रूरी नहीं की सचिन के आउट होते ही सक़लैन ने अपनी फिरकी में बाकी बल्लेबाजों को भी लपेट लिया और भारत मैच हार गया और वो भी मामूली 12 रन के अंतर से। हम सभी भारी मन से लगभग चिढ़े हुए या कह लीजिये रोते हुए वहीँ पर जम गए थे। तभी भाईजान ने अपनी साइकिल उठाई और बोले "सब सक़लैन का कमाल है... सब सक़लैन का कमाल..."
बस उसी रोज़ से भाईजान को हम सक़लैन के नाम से जानने लगे और जब भी वो अपनी साइकिल से आते या जाते दिखाई देते हम सभी बोल उठते "सब सक़लैन का कमाल है, सब सक़लैन का कमाल.."
सक़लैन मुश्ताक़ का भारत के ख़िलाफ़ हमेशा बड़ा अच्छा रिकॉर्ड रहा। वो बड़े लड़ाकू किस्म के स्पिनर रहे जो मैच में पूरी जान झोंक देते थे। बेशक़ उन्होंने कई मौकों पर भारत के खेल प्रेमियों का दिल तोड़ा लेकिन भारत में वो अपना एक ऐसा प्रशंसक बना गए जिसका ज़िक्र आते ही मैं और मेरे पुराने दोस्त उछल पड़ते हैं। तो ऐसे थे महान सक़लैन मुश्ताक़ और ऐसा था उनका कमाल।
ये 1994-95 के सीजन की बात है... मैं 6वीं क्लास में पढ़ रहा था। हमारी क्वार्टर के पास ही एक सरकारी स्कूल था जिसे पूर्वे सर का स्कूल कहा जाता था। झक सफ़ेद कपड़े पहनने वाले पूर्वे सर थोड़ी ही दूर स्थित पाथाखेड़ा के बड़े स्कूल के प्रिंसिपल केबी सिंह की नक़ल करने की कोशिश करते थें.. लेकिन रुतबे और पढाई के स्तर में वो कहीं भी केबी सिंह की टक्कर में नहीं थें। अगर आपने कभी किसी सरकारी स्कूल को गौर से देखा हो या वहां से पढाई की हुई हो तो शायद आपको याद आ जाएगा कि ज़्यादातर स्कूलों में ड्रेस कोड का कोई पालन नहीं होता। सुबह की प्रार्थना से ग़ायब हुए लड़के एक-दो पीरियड गोल मारकर आ जाया करते हैं। उनकी जेबों में विमल, राजश्री की पुड़िया आराम से मिल जाती है और छुट्टी की घंटी बजते ही बच्चे ऐसे क्लास से बाहर निकलते हैं जैसे कि लाल कपड़ा दिखाकर उनके पीछे सांड छोड़ दिए गए हो.. ऐसे ही एक सरकारी स्कूल से मैं भी शिक्षा हासिल करने की कोशिश कर रहा था... सितंबर का महीना लग गया था... जुलाई और अगस्त में झड़ी लगाकर पानी बरसाने वाले बादल लगभग ख़ाली हो गए थे। तेज़ और सीधी ज़मीन पर पड़ती चमकती धूप के कारण सामने वाली लड़कियों की क...
This comment has been removed by a blog administrator.
ReplyDelete"☺"ऐसे ही लिखते रहिये ,लगता है की ,हम अपनो के पास ही है!!☺
ReplyDeleteधन्यवाद मित्र...
DeleteThis comment has been removed by a blog administrator.
ReplyDeleteNice flow in your writing. Well dine ! Keep it up.
ReplyDelete