हर किसी इंसान की यादों में एक शहर बसता है। एक ऐसा शहर, जहां पर उसका बचपन बड़ी तेज़ी से गुज़रता है और देखते ही देखते जवानी में बदल जाता है। लेकिन जवानी तक के इस सफ़र में उसकी ज़िंदगी के साथ बेहिसाब क़िस्सें और कहानियां जुड़ती जाती हैं। मोहल्ले की मुहब्बत, गली की क्रिकेट पिच, चौक-चौराहे की दादागिरी, रोज़ाना की नोंकझोंक, मासूमियत से भरी दोस्ती और स्कूल के मस्तीभरे दिन। आमतौर पर छोटे शहरों और क़स्बों में रहने वालों के पास यादों के ऐसे ही ढेर सारे खजाने होते हैं, जिन्हें लेकर वो अपनी मंज़िल की तरफ बढ़ते हैं। उनका नसीब ही कुछ ऐसा होता हैं कि पैसा कमाने और कुछ करने के लिए उन्हें बड़े शहरों की तरफ जाना पड़ता हैं। बीते कुछ बरसों में सारनी से भी ऐसे ही कितने क़ाबिल लोग बाहर की दुनिया में निकले हैं जो आज देश और विदेश में अपना नाम कमा रहे हैं और इस छोटे से शहर की शान बढ़ा रहे हैं। ये इस शहर के लिए गौरव की बात है कि इसे किसी एक पहचान में नहीं बांधा जा सकता। देश के अलग-अलग हिस्सों से लोग अपने परिवार के साथ यहां आकर बसे और सारनी ने उन्हें अपना और उन्होंने सारनी को अपना बनाया। जो लोग यहां से वापस गए भी तो अपने दिल में इस शहर की कभी न ख़त्म होने वाली यादें लेकर। अलग-अलग नाम, जाति, धर्म और भाषा होने के बाद भी उन सभी की एक ही पहचान रही और वो थी सारनी का बाशिंदा होने की। तो चलिए हम उन तमाम लोगों को जो सारनी में रहते आए हैं या फिर जो यहां रहकर जा चुके हैं, एक नाम देते हैं... सारनीकर। और शुरूआत करते हैं एक ऐसे अड्डे की, जहां पर हम अपने इस प्यारे शहर की बातों और यादों को हमेशा ज़िंदा रख सकें। तो आप सभी का स्वागत है Sarni Town में, जहां आपको अपने शहर और यहां के लोगों से जुड़ी सारी जानकारी मिलती रहेगी... शुक्रिया।
करीब 10 महीने बाद ब्लॉग लिखने बैठा हूं। आप समझिए कि बस इस कदर मजबूर हुआ कि रहा नहीं गया। बीते रविवार मुंबई में था जहां मैं आशुतोष गोवारिकर की फिल्म ‘खेलें हम जी जान से’ देखने पहुंचा। गौरतलब है कि नौकरी छोड़ने के बाद मैने फिल्में देखना कम कर दिया है। बहुत सारे फिल्म पंडितों के विचार जानने और समीक्षाएं पढ़ने के बाद मैने फिल्म देखी। अफ़सोस केवल अजय ब्रह्मात्मज जी ने ही अपनी समीक्षा में फिल्म की प्रशंसा की। वहीं अंग्रेजी भाषा के सभी फिल्म समीक्षकों से तो आशुतोष की भरपूर आलोचना ही सुनने और देखने को मिली। फिल्म के निर्देशन, पटकथा, संवाद और लंबाई को लेकर सभी ने अपनी ज़ुबान हिला-हिला कर आशुतोष को कोसा। ये आलोचक भूल गए कि जो विषय परदे पर है वो अब से पहले अनछूआ था। जो किरदार आंखों के सामने हैं उनसे ये फिल्म पंडित खुद भी अंजान थे। क्या ये बड़ी बात नहीं कि श्रीमान गोवारिकर ने ऐसे ग़ुमनाम नायकों को सामने लाने की कोशिश की जिनसे हमारा परिचय ही नही था। सूर्ज्यो सेन का ज़िक्र इतिहास की किताबों में चार लाइनों से ज़्यादा नहीं है। बाकी के किरदार तो छोड़ ही दीजिए... क्योंकि इनसे तो सभी अनजान थे। दर्शक भी इ...
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