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Showing posts from 2017

जॉनी जैसा जानी दोस्त

साहित्य और सिनेमा दोनों ही जगह साइडकिक की एक लम्बी परंपरा रही है। साइडकिक यानी वो किरदार जो हरदम नायक के साथ नज़र आता है। कभी वो मज़ाक का पात्र बनता है तो कई मौकों पर नायक का एकलौता मददगार भी साबित होता है। शेरलॉक होम्स के साथ डॉक्टर वॉटसन और बैटमैन के साथ रॉबिन तो कभी न भूलने वाले साइडकिक है जो कई बार कथा के मुख्य नायक पर भी भारी पड़े हैं। हिंदी सिनेमा में दिलीप कुमार के साथ मुकरी और शाहरुख़ ख़ान या गोविंदा के साथ जॉनी लीवर ने साइडकिक की भूमिका को बख़ूबी अंजाम दिया है। फिल्म ‘अंगूर’ में संजीव कुमार के साथ देवेन वर्मा ख़ालिस क्लासिक साइडकिक के रूप में प्रस्तुत हुए, लेकिन जॉनी वॉकर सर्वश्रेष्ठ रहे। गुरुदत्त के सामने उन्होंने कुछ इतने कमाल के किरदार निभाएं हैं जो अमिट है। जॉनी होते तो 11 नवंबर को 97 साल के हो जाते। मामूली बस कंडक्टर से हिंदी सिनेमा के महानतम कॉमेडियन बनने की उनकी कहानी दिलचस्प है लेकिन बात करते हैं जॉनी के उस अंदाज़ की जिसके लिए उन्हें सब इतना पसंद करते हैं। जॉनी वॉकर हमेशा ऐसे ही रहमदिल, मज़ाकियां और नायक की मदद करने वाले किरदार में आते और अपनी भाव-भंगिमाओं से

हिंदी मीडियम - पार्ट 2 (फाल्के सर और वो थप्पड़)

पैंतीस-चालीस या उससे भी कुछ ज़्यादा बच्चों से भरी हुई क्लास.. उनमें से हर एक की गोद में खुली हुई इंग्लिश की बुक और उसका लेसन नंबर 3 या 4... वही जॉन, डेविड, राम और लीला टाइप किरदारों के बहाने अंग्रेजी के बेहद घिसे हुए और उबाऊ वाक्यों का पाठ... कुछ बच्चे सामने लोहे की फोल्डिंग कुर्सी पर बैठे फाल्के सर की तरफ गौर से देख रहे हैं और कुछ अपनी क़िताब में दो आंखें गढ़ाए फिरंगियों की ज़ुबान के अजीब उच्चारण और उन शब्दों की स्पेलिंग को समझने की कोशिश कर रहे हैं.. इधर मेरे बाएं कान में खुजली मची हुई है और मैं अपने नए खरीदे हुए रेनॉल्ड्स पैन के नीले ढक्कन से खुजली शांत कर रहा हूँ... क्लास के बाहर नज़र दौड़ाने पर मैं वही रोज़ जैसा माहौल पाता हूँ... स्कूल के साथ वाले नाले में बेशरम के पौधे फिर तेज़ी से बढ़ने लगे हैं.. उन पर हल्क़े नीले रंग के मगर फिर भी बदसूरत से फूल झूल रहे हैं.. कई बार इसी बेशरम की हरी डंडियों से मास्साब हमारी हथेलियां और पुट्ठे लाल कर चुके हैं.. सच तो यह कि मुझे इस हरी कच्च बेशरम से बेहद कोफ़्त होती है.. (क्रिकेट खेलते हुए हमारी कितनी ही गेंदें उस बेशरम के नीचे जमे गंदे बदबूदार कीचड मे

हिंदी मीडियम - पार्ट 1 (कापसे सर और उनका डर)

ये 1994-95 के सीजन की बात है... मैं 6वीं क्लास में पढ़ रहा था। हमारी क्वार्टर के पास ही एक सरकारी स्कूल था जिसे पूर्वे सर का स्कूल कहा जाता था। झक सफ़ेद कपड़े पहनने वाले पूर्वे सर थोड़ी ही दूर स्थित पाथाखेड़ा के बड़े स्कूल के प्रिंसिपल केबी सिंह की नक़ल करने की कोशिश करते थें.. लेकिन रुतबे और पढाई के स्तर में वो कहीं भी केबी सिंह की टक्कर में नहीं थें। अगर आपने कभी किसी सरकारी स्कूल को गौर से देखा हो या वहां से पढाई की हुई हो तो शायद आपको याद आ जाएगा कि ज़्यादातर स्कूलों में ड्रेस कोड का कोई पालन नहीं होता। सुबह की प्रार्थना से ग़ायब हुए लड़के एक-दो पीरियड गोल मारकर आ जाया करते हैं। उनकी जेबों में विमल, राजश्री की पुड़िया आराम से मिल जाती है और छुट्टी की घंटी बजते ही बच्चे ऐसे क्लास से बाहर निकलते हैं जैसे कि लाल कपड़ा दिखाकर उनके पीछे सांड छोड़ दिए गए हो.. ऐसे ही एक सरकारी स्कूल से मैं भी शिक्षा हासिल करने की कोशिश कर रहा था... सितंबर का महीना लग गया था... जुलाई और अगस्त में झड़ी लगाकर पानी बरसाने वाले बादल लगभग ख़ाली हो गए थे। तेज़ और सीधी ज़मीन पर पड़ती चमकती धूप के कारण सामने वाली लड़कियों की क

ये नाम नहीं, पहचान है - पार्ट 6 (धोखाधड़ी)

अभी कुछ दिनों पहले की बात है जब तांत्रिक चंद्रास्वामी अचानक इस दुनिया से चलते बने। बहुत लंबे समय तक गुमनाम ज़िन्दगी जीने के बाद एक रोज़ मौत उन्हें अपने साथ ले गयी। 90 के दशक में ऐसा कोई दिन नहीं जाता था जब टीवी या अख़बार में उस शख़्स का ज़िक्र न उठा हो। उनके साथ जुड़े तमाम विवादों को किसी छलनी से छाना जाए तो एक विवाद सबसे मोटे तौर पर नज़र आता है और वो है लक्खूभाई पाठक घोटाला, जिसे उस वक़्त मीडिया में लक्खूभाई पाठक धोखाधड़ी मामला भी कहा गया। ख़ैर ये कोई राजनितिक पोस्ट नहीं है और न ही मैं किसी विवाद पर बात कर रहा हूँ बल्कि इसी लक्खूभाई केस में छुपी है एक और दिलचस्प नाम की कहानी जो बचपन में हमारे लिए रोज़ाना के मस्ती-मज़ाक की वजह बना। मेरे क्वार्टर के बिल्कुल पीछे वाली ब्लॉक में एक लक्खू अंकल रहा करते थें। छोटे कद के, मोटे से मगर हरदम मुस्कान लिए हुए। बड़े ही अलहदा किस्म के थे लक्खू अंकल.. मस्तमौला तबीयत के मालिक, खूब खाने-पीने और हमेशा मज़ाक-मसखरी करते रहने वाले। मोहल्ले-पड़ोस में कहीं कोई उत्सव हो या सड़क से गुज़रती बरात या कोई जुलूस.. अंकल फौरन वहां पहुंचकर नाचने लगते और ऐसे मस्त होकर नाचते कि

ये नाम नहीं, पहचान है - पार्ट 5 (नमस्ते बॉलर...)

हमारे भारत देश में अभिवादन एक का बड़ा सिंपल सा तरीका है.. अपने दोनों हाथ जोड़कर हल्क़े से मुस्कुराते हुए कहना.. नमस्ते! जब कोई रिश्तेदार घर पर आये तो सामने आते ही शुरू हो जाना.. नमस्ते चाचाजी.. नमस्ते मामाजी.. नमस्ते फूफाजी और चाहे जितने भी जी आते जाए, उनके सामने बस एक नमस्ते लगाइए और सर झुकाते जाइये। अगर आप बच्चे हैं और ऐसे ही नमस्ते के साथ रिश्तेदारों के साथ पेश आते हैं तो फिर आप सभ्य और शरीफ बच्चों में गिने जाएंगे। बड़ा कमाल शब्द है नमस्ते.. और तो और सरकारी दफ़्तरों में बैठे बाबू लोगों को नमस्ते ठीक तरह से बजा दिया जाए तो समझिए की उन्हें देने वाली चाय-पानी में भी डिस्काउंट मिल जाता है।खैर, नमस्ते अंकलजी और नमस्ते बाबूजी तक तो ठीक है लेकिन आज मैं आपको एक ऐसे नमस्ते का किस्सा सुना रहा हूँ जिसके आगे लगता था बॉलर.. जी हां, उस शख़्स को लोग कहते थें नमस्ते बॉलर.. नमस्ते बॉलर का असली नाम था संजय यादव और उसे हम बचपन में चिढ़ाने के लिए अक्सर बिहारी भी बुलाया करते थें। संजय का बॉलिंग करने का बड़ा ही दिलचस्प अंदाज़ था.. बहुत छोटा सा रन-अप लेते हुए जब वो गेंद फेंकने वाला होता तो विकेट के पास

ये नाम नहीं, पहचान है - पार्ट 4 (झक्की आया...)

ये शायद साल 1997 या 98 की बात है। सतपुड़ा की लंबी बरसातें ख़त्म हो चली थीं और मौसम थोड़ी उमस लिए हुए था। उस रोज़ शाम के कोई 6 या साढ़े 6 बजे होंगे, जब हम लोग क्लब कॉलोनी की एक क्रिकेट टीम से 15-16 ओवर्स का मैच मुश्किल से जीतने के बाद ख़ुशी मना रहे थें। शर्त के पैसे मिल चुके थें, मगर पैसों से ज़्यादा तसल्ली हारी हुई टीम को चिढ़ाने में मिल रही थी। उस मैच के दौरान दोनों ही टीमों के बीच काफी बहस और गहमा गहमी हुई थी और करीब-करीब झगड़ा होते हुए बचा था। आख़िर में विजेता साबित होने से लड़कों को कुछ ज़्यादा ही मज़ा मिल गया था और उसका जश्न भी खूब मनाया गया। शाम के ढलते तक हमारी टीम के कुछ ख़िलाड़ी पैदल तो कुछ अपनी सायकल लिए घर की तरफ निकल चुके थें। वहां सिर्फ मैं और राजेश बचे हुए थें और आख़िर में किट चेक करने के बाद हम भी निकलने की तैयारी में थें। दूसरी टीम के ज़्यादातर लड़के मैदान के दूसरे हिस्से में खड़े हुए कुछ बात कर रहे थें। राजेश और मैं घर जाने के लिए निकलें कि तभी उनमें से किसी ने राजेश को कुछ कहा। मुझे ठीक से तो याद नहीं.. पर हाँ, उसे बंगाली कहते हुए कोई गाली दी थी। गाली सुनते ही राजेश ने सायकल रोकी और

ये नाम नहीं, पहचान है - पार्ट 3 (सक़लैन का कमाल है..)

नमस्कार भाई लोगों.. क्या हाल है? ये नाम नहीं, पहचान है सीरीज का पिछला पार्ट मैंने एक साल पहले लिखा था। कुछ किस्से लगातार लिखने के बाद अचानक मैंने लिखना बंद कर दिया। वजह बस इतनी सी थी कि जॉब करते हुए कुछ अलग लिखने का टाइम ही नहीं मिल पाता। यादों को पन्नों पर उतारने में भी काफी वक़्त ख़र्च होता है और जिस तरह की ज़िन्दगी हम जी रहे हैं उसमें इतना वक़्त निकाल पाना बहुत मुश्किल है। काफी कोशिश के बाद दोबारा कीबोर्ड पर उंगलियां चला रहा हूँ तो चलिए एक पुराने किरदार की बात करते हैं जो हमारे बचपन से जुड़ा हुआ है। फरवरी के महीने में बाबू (राजेश सरदार) शोभापुर आया हुआ था और काफी अर्से के बाद उससे मुलाकात हुई थी। किसी काम के सिलसिले में बाबू को पाथाखेड़ा जाना था और उसके साथ साथ मैं भी चल पड़ा। रास्ते में हॉस्पिटल तिराहे से पहले में हमें वो शख़्स नज़र आया जो कि हमारे बचपन की सबसे मजेदार यादों का हिस्सा है। अब जबकि चैंपियंस ट्रॉफी कुछ ही दिनों की दूरी पर है और 4 जून को हमें पाकिस्तान से भिड़ना है.. तो क्यों न उसी शख़्स की बात करें जिसे हम सब सक़लैन कहते है। सक़लैन भाईजान का असली नाम मुझे याद नहीं रहा है लेक

गाने अपने ज़माने के... बोले तो हिंदी पॉप

ये कोई दो साल पुरानी बात होगी। एनसीआर के एक बड़े मशहूर बिल्डर ने ग्रेटर नोएडा में बड़ी शानदार पार्टी दी थी। शाम को ऑफिस से फ़ारिग होने के बाद मैं भी अपने एक दोस्त के साथ उस पार्टी में पहुंच गया। उस पार्टी की ख़ास बात ये थी कि वहां यो यो हनी सिंह की परफॉर्मेंस होनी थी, जो उस टाइम अपनी स्टारडम के टॉप पर पहुंच चुका था। महंगी व्हिस्की, लज़ीज़ क़बाब और मसालेदार मीट के बीच पार्टी जवां हुई और हनी सिंह का शो भी शबाब पर पहुंच गया। वहां मौजूद सभी लोग धीरे-धीरे शुरू हुए और फिर बेतहाशा नाचने लगे। सबको देख मैं भी बेसुध होकर उनके बीच डांस करने लगा। कुछ देर बाद पार्टी के बीच में ही मैं वॉशरूम की तरफ गया तो देखा कि एक सरदार जी बाहर खड़े व्हिस्की गटकते जा रहे थें और धीरे-धीरे झूम भी रहे थें। मैंने कहा -“क्या सरदार जी... बस यहीं नाचते रहोगे... वहां पार्टी में जाओ, यो यो क्या धमाल मचा रहा है।” सरदार जी कुछ देर सोचते रहे फिर बोले - “बंदे का टेम अच्छा है... लेकिन इसके पास दलेर वाला मैजिक नई है जी।” सरदार जी इतना बोलकर वापस व्हिस्की सुड़कने लगे और मैं वापस यो यो की परफॉर्मेंस एंजॉय करने जा पहुंचा... उस

ये नाम नहीं, पहचान है – पार्ट 2 (कचरे का जोंटी रोड्स)

रोज़ सुबह जब मैं सैर के लिए अपने घर से निकलता हूं तो सड़क पर पहुंचते ही सबसे पहले सामना होता है नगर पालिका की कूड़ा उठाने वाली गाड़ी से.. जो स्वच्छ भारत अभियान के थीम सॉन्ग को ज़ोर-ज़ोर से बजाते हुए अपनी सुस्त रफ्तार से हर एक गली में घुसती है। उस गाड़ी के रूकते ही लोग थैलियों में भरा कूड़ा उसमें डालते हैं और फिर वो गाड़ी अगली गली की तरफ बढ़ जाती हैं। ये देखकर अच्छा लगता है कि हमारे टाउन के लोग अब धीरे-धीरे ही सही लेकिन साफ-सफाई को संजीदगी से ले रहे हैं। कितना अच्छा लगता है जब हम शहर से गुज़रें तो कहीं भी कूड़े का ढेर नज़र नहीं आता और न ही उससे उठती बदबू हमारा भेजा ख़राब करती है। ख़ैर, ये तो हुई आज की स्वच्छ सारनी की बात और अब थोड़ा पीछे चलते हैं उन दिनों में, जब हमारे क़स्बे की हर गली के पीछे या कभी-कभी गली के आगे भी कूड़े का ढेर जमा होता था। हमारे अपने मुहल्ले के पास बने सरकारी स्कूल के साथ बहने वाला नाला तो याद होगा ही आप सभी को..? हर एक घर से रोज़ निकलने वाला कचरा जमा होने से वहां एक ढलान जैसी बन गई थी। ऐसा ही कुछ हाल स्कूल के साथ बहने वाले नाले का भी था, जिसमें गंदा पानी कम और

ये नाम नहीं, पहचान है – पार्ट 1

हम क़स्बाई लोगों के बीच एक बड़ी दिलचस्प आदत देखने में आती है, वो है किसी को भी नया नाम देने की या उसके नाम को बिगाड़ने की। अब मां-बाप ने चाहे अपने बच्चों को कितने ही ख़ूबसूरत नाम क्यों न दिए हों, उनके साथ रहने या ख़ेलने वाले लड़के उनका नया नाम रख देते हैं, कई बार तो एक-एक लड़के के कई-कई नाम पैदा कर दिए जाते हैं। मेरी यादों में भी कई ऐसे दिलचस्प नाम उभरकर आते हैं, जिन्हें सुनकर किसी नए आदमी को कभी मालूम नहीं चलेगा कि आख़िर ये नाम कैसे सामने आया। अब ज़रा आप तसव्वुर करिए कि कुछ लड़के मैदान में क्रिकेट ख़ेल रहे हैं। बॉलर पूरे जोश से दौड़ते हुए आता है और बॉल फेंकता हैं। अपनी तरफ आती बॉल देखकर बैट्समैन भी बल्ला चलाता है और तभी बल्ले की कन्नी लगती हैं और बॉल तेज़ी से थर्डमैन की ओर निकल जाती है। भागती बॉल को देखते हुए विकेटकीपर, सारे फील्डर्स और ख़ुद बॉलर भी थर्डमैन की जानिब खड़े लड़के की तरफ देखते हुए चीख-चीखकर कहने लगता हैं – ‘अबे चाय पकड़... बॉल पकड़... साले चार रन नहीं जाने चाहिए।’ अब अगर आप मैदान से बाहर खड़े हैं तो चार रन की फिक्र छोड़ेंगे और सोचने बैठ जाएगे कि साला थर्डमैन के फील्डर

क्रिकेट का जुनून और वो गुज़रा हुआ ज़माना...

पिछले दिनों की बात है, इंडिया-ऑस्ट्रेलिया के बीच हुए वर्ल्ड टी20 मैच के अगले दिन हवाई पट्टी की तरफ जाना हुआ। मुझे याद है, हर बड़े मैच में इंडिया की जीत के बाद हवाई पट्टी का मैदान स्कूली बच्चों से भर जाता था। हाथ में बैट और बॉल थामें लड़कों के अलग-अलग झुंड और भी ज़्यादा जोश के साथ क्रिकेट ख़ेलने निकल आते थें। जिन्हें मैदान में जगह नहीं मिलती थीं, वो लड़के स्कूलों के ग्राउंड में जाकर ख़ेलने लग जाते। अफ़सोस ये गुज़रे दौर की बातें हैं, उस रोज़ तो मुझे पट्टी पर वैसा कुछ भी नज़र नहीं आया। खुले मैदान पर गिने-चुने लोग थें, जिनमें कुछ अधेड़ उम्र की औरतें और आदमी शामिल थें। जो हर शाम की तरह हवाई पट्टी पर टहलने आए थें, इस उम्मीद से कि कुछ मिनटों की वॉक से उनके फूले हुए पेट पिचक जाएंगे। कुछ लड़के भी थें, जो दूर कोने में खड़े होकर आने-जाने वालों से बेख़बर सिगरेट फूंक रहे थें। मैदान पर जगह-जगह बीयर और शराब की टूटी हुई बोतलें पड़ी थीं। इक्का-दुक्का कारें थीं जिसमें बैठे लोग ड्राइव करने की प्रेक्टिस कर रहे थें। अगर कुछ नहीं था तो क्रिकेट ख़ेलते लड़कों का वो सीन जिसकी हमें आदत रही हैं। एक रोज़ मैंने

हम हैं सारनीकर...

हर किसी इंसान की यादों में एक शहर बसता है। एक ऐसा शहर, जहां पर उसका बचपन बड़ी तेज़ी से गुज़रता है और देखते ही देखते जवानी में बदल जाता है। लेकिन जवानी तक के इस सफ़र में उसकी ज़िंदगी के साथ बेहिसाब क़िस्सें और कहानियां जुड़ती जाती हैं। मोहल्ले की मुहब्बत, गली की क्रिकेट पिच, चौक-चौराहे की दादागिरी, रोज़ाना की नोंकझोंक, मासूमियत से भरी दोस्ती और स्कूल के मस्तीभरे दिन। आमतौर पर छोटे शहरों और क़स्बों में रहने वालों के पास यादों के ऐसे ही ढेर सारे खजाने होते हैं, जिन्हें लेकर वो अपनी मंज़िल की तरफ बढ़ते हैं। उनका नसीब ही कुछ ऐसा होता हैं कि पैसा कमाने और कुछ करने के लिए उन्हें बड़े शहरों की तरफ जाना पड़ता हैं। बीते कुछ बरसों में सारनी से भी ऐसे ही कितने क़ाबिल लोग बाहर की दुनिया में निकले हैं जो आज देश और विदेश में अपना नाम कमा रहे हैं और इस छोटे से शहर की शान बढ़ा रहे हैं। ये इस शहर के लिए गौरव की बात है कि इसे किसी एक पहचान में नहीं बांधा जा सकता। देश के अलग-अलग हिस्सों से लोग अपने परिवार के साथ यहां आकर बसे और सारनी ने उन्हें अपना और उन्होंने सारनी को अपना बनाया। जो लोग यहां से वापस गए