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ये नाम नहीं, पहचान है – पार्ट 2 (कचरे का जोंटी रोड्स)

रोज़ सुबह जब मैं सैर के लिए अपने घर से निकलता हूं तो सड़क पर पहुंचते ही सबसे पहले सामना होता है नगर पालिका की कूड़ा उठाने वाली गाड़ी से.. जो स्वच्छ भारत अभियान के थीम सॉन्ग को ज़ोर-ज़ोर से बजाते हुए अपनी सुस्त रफ्तार से हर एक गली में घुसती है। उस गाड़ी के रूकते ही लोग थैलियों में भरा कूड़ा उसमें डालते हैं और फिर वो गाड़ी अगली गली की तरफ बढ़ जाती हैं। ये देखकर अच्छा लगता है कि हमारे टाउन के लोग अब धीरे-धीरे ही सही लेकिन साफ-सफाई को संजीदगी से ले रहे हैं। कितना अच्छा लगता है जब हम शहर से गुज़रें तो कहीं भी कूड़े का ढेर नज़र नहीं आता और न ही उससे उठती बदबू हमारा भेजा ख़राब करती है। ख़ैर, ये तो हुई आज की स्वच्छ सारनी की बात और अब थोड़ा पीछे चलते हैं उन दिनों में, जब हमारे क़स्बे की हर गली के पीछे या कभी-कभी गली के आगे भी कूड़े का ढेर जमा होता था। हमारे अपने मुहल्ले के पास बने सरकारी स्कूल के साथ बहने वाला नाला तो याद होगा ही आप सभी को..? हर एक घर से रोज़ निकलने वाला कचरा जमा होने से वहां एक ढलान जैसी बन गई थी। ऐसा ही कुछ हाल स्कूल के साथ बहने वाले नाले का भी था, जिसमें गंदा पानी कम और कचरा ज़्यादा रहता था। हालांकि वहां फैली बेशरम की लम्बी-लम्बी झाड़ियों की बदौलत वो इलाका हमेशा हरा-भरा दिखाई देता था। उन दिनों स्कूल का वो छोटा सा ग्राउंड भी क्रिकेट खेलने वाले बच्चों से लगभग भरा रहता था। बच्चों के झुंड अपनी क़ब्ज़ा की हुई जगह पर स्टंप ठोंककर क्रिकेट खेलना शुरू कर देते। उस मैदान में ऑफ और लेग साइड की तरफ जगह बहुत कम थी, क्योंकि दोनों ही तरफ से स्कूल की बिल्डिंग हमें घेर लेती थीं। ऐसे में सामने का ही हिस्सा बचता था, जहां बल्लेबाज को लम्बे-लम्बे और ऊंचें शॉट्स मारने की आज़ादी मिला करती थी। बैट्समैन के लिए फायदे की एक और बात ये थी कि उस हिस्से की बाउंड्री पर कचरे से बनी ढलान थी और अक्सर वहां आया शॉट कोई फील्डर पकड़ नहीं पाता था। मुझे आज भी याद है कि उस तरफ गेंद उछाल कर मारने का मतलब शर्तिया चौका या छक्का ही होता था। कई बरसों तक मैंने ख़ुद भी उस मैदान में ऐसे ही चौके या छक्के मारे या फिर दूसरों को मारते देखा। हमारे मुहल्ले में रहने वाला कपिल एक बड़ा ही मस्तमौला और अपनी धुन में रहने वाला लड़का था। क्रिकेट को लेकर वो शुरूआत में बहुत ज़्यादा जुनूनी तो नहीं था, लेकिन कभी-कभार शौक़ से हमारे साथ ख़ेल लिया करता। उसे बैटिंग मिली तो ठीक और अगर नहीं भी मिली तो कोई शिक़ायत नहीं रहती थी। यहां तक की बॉलिंग करने को लेकर भी कभी कोई ख़ास ज़िद नहीं करता था कपिल। इसके बावजूद भी फील्डिंग पोज़िशन पर पूरे ओवरों तक खड़ा रहता था और मैच ख़त्म होने तक टीम के साथ रहता। मुझे ठीक से याद नहीं कि वो एक प्रैक्टिस मैच था या फिर किसी दूसरी टीम के साथ शर्त के लिए खेला गया मैच। लेकिन, इतना याद है कि उस मैच के बाद कपिल को एक नया नाम मिल गया था जिसकी वजह से वो काफी पॉपुलर भी हुआ। उस रोज़ किसी वजह से कपिल को फील्डिंग करने के लिए लॉग ऑन की तरफ भेजा गया, जबकि उसकी हाईट बाकी फील्डर्स से काफी कम थीं। हो सकता है कि हमारे पास उस दिन गिने-चुने प्लेयर्स ही रहे हो या फिर हमारे कैप्टन को कोई और फील्डर दिखाई ही नहीं दिया। जैसा कि उस मैदान में हमेशा देखने को मिलता था, बैट्समैन ने अगली ही गेंद को उस तरफ हवा में काफी ऊपर उछाल दिया। वहां सामने की जानिब लम्बा शॉट जाने का मतलब था कि छक्का मिलेगा ही मिलेगा। लेकिन उस रोज़ कुछ अलग हुआ... इससे पहले की बॉल ज़मीन पर गिरती हम सब ने देखा कि कपिल ने हवा में उछलते हुए उसे लपक लिया। ज़ाहिर सी बात है कि विकेट गिरने की ख़ुशी तो मनानी ही थी, लेकिन उससे पहले सभी ये सोचकर हैरान थे कि उस कचरे में गिर-पड़कर कोई कैसे कैच पकड़ सकता है? ख़ैर, थोड़ी देर बाद कपिल की मेहनत और जोश को हम सभी ने मिलकर सेलिब्रेट किया। टूटी हुई कांच की बोतलें, सड़ा हुआ अनाज, गंदी प्लास्टिक की थैलियों और धूल-मिट्टी के बाद भी कपिल ने जिस तरह हवा में वो कैच लपका उसके लिए सभी ने उसकी तारीफ की और मैच ख़त्म होते तक उसे नाम मिल गया... जोंटी रोड्स।
ये बताने की ज़रूरत नहीं कि उस मैच के बाद आने वाले कई बरस यानि कि जब तक कपिल क्रिकेट खेला उसने उसी कचरा-घर के पास फील्डिंग की और कई कमाल के कैच पकड़े। कपिल के कारनामे के बाद मैदान का वो हिस्सा बैट्समैन के लिए सेफ ज़ोन नहीं रह गया था। उस पोज़िशन पर तो हमारा ‘देसी जोंटी रोड्स’ खड़ा रहता था... बोले तो, कचरे का जोंटी रोड्स। आज वो ‘ऐतिहासिक’ कचरा-घर स्कूल की बाउंड्रीवॉल के बीच खो गया है, लेकिन उससे जुड़ी कपिल के यादगार कैच आज भी उसके दोस्तों की यादों में ताज़ा है और मुझे यकीन है हमेशा रहेंगे। वैसे कपिल इन दिनों झारखंड की राजधानी रांची में रहते हैं और सीएमपीडीआई में उनकी नौकरी भी बढ़िया चल रही है। वो अब भी वैसे ही हैं मस्तमौला और अपनी धुन में रहने वाले इंसान। कभी आपसे मुलाक़ात हो तो उनसे कचरे का जोंटी रोड्स बनने का क़िस्सा उनकी अपनी ज़ुबान में ज़रूर सुनिएगा, दोगुना मज़ा आएगा। (“ये नाम नहीं, पहचान है” इस संस्मरण की सीरिज में शोभापुर, पाथाखेड़ा और सारनी में मशहूर कुछ अजीब-ओ-ग़रीब नामों पर बातें करेंगे। आपको भी कुछ नाम याद आएं तो ज़रूर शेयर करें… शुक्रिया)

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