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Showing posts from 2010

दिलीप को दिलीप का सलाम...

कुछ ठीक-ठीक मालूम नहीं... याद नहीं पड़ता, मगर इतना तय है कि मैं तीसरी या चौथी जमात में रहा होऊंगा। एक शाम अपने ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर कोई फिल्म देख रहा था। एक बेहद ख़ूबसूरत नौजवान... जो शराब के नशे में धुत्त किसी का नाम लिए जा रहा था... आख़िर में बड़ी तकलीफ़ के साथ उसकी सांसे उसका साथ छोड़ जाती है। 10 साल बाद उसी फिल्म को दोबारा टीवी पर देखा.... तब तक समझ जवां हो चुकी थी और कुछ मैं भी। दोस्तों वो फिल्म थी "देवदास" और वो शख़्स थे महान अदाकार दिलीप कुमार साहब। दिलीप साहब ने इतनी शिद्दत से इस किरदार को जिया की हिन्दोस्तान में हर कोई इश्क में चोट खाए, अपनी दुनिया लुटा बैठे लड़के को देखकर उसे देवदास के नाम से बुलाता। ये कमाल था दिलीप कुमार की अदाकारी का। जहां ट्रेजडी की बात हो तो आज भी बस दिलीप कुमार ही का चेहरा सामने आता है। उनका वो रुक-रुक कर बोलना। डायलॉग्स के बीच में कुछ वक्त के लिए ठहर जाना... ये सारी बाते उनके संवादों और अदाकारी को गहराई देती है। फिल्म "मधुमती" तो याद होगी आपको... वो गीत "सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं" किस तरह चेहरे पर मुस्कुराहट लिए दिली

ख़तरनाक है देशभक्ति फिल्मों के प्रति दर्शकों की उदासीनता

करीब 10 महीने बाद ब्लॉग लिखने बैठा हूं। आप समझिए कि बस इस कदर मजबूर हुआ कि रहा नहीं गया। बीते रविवार मुंबई में था जहां मैं आशुतोष गोवारिकर की फिल्म ‘खेलें हम जी जान से’ देखने पहुंचा। गौरतलब है कि नौकरी छोड़ने के बाद मैने फिल्में देखना कम कर दिया है। बहुत सारे फिल्म पंडितों के विचार जानने और समीक्षाएं पढ़ने के बाद मैने फिल्म देखी। अफ़सोस केवल अजय ब्रह्मात्मज जी ने ही अपनी समीक्षा में फिल्म की प्रशंसा की। वहीं अंग्रेजी भाषा के सभी फिल्म समीक्षकों से तो आशुतोष की भरपूर आलोचना ही सुनने और देखने को मिली। फिल्म के निर्देशन, पटकथा, संवाद और लंबाई को लेकर सभी ने अपनी ज़ुबान हिला-हिला कर आशुतोष को कोसा। ये आलोचक भूल गए कि जो विषय परदे पर है वो अब से पहले अनछूआ था। जो किरदार आंखों के सामने हैं उनसे ये फिल्म पंडित खुद भी अंजान थे। क्या ये बड़ी बात नहीं कि श्रीमान गोवारिकर ने ऐसे ग़ुमनाम नायकों को सामने लाने की कोशिश की जिनसे हमारा परिचय ही नही था। सूर्ज्यो सेन का ज़िक्र इतिहास की किताबों में चार लाइनों से ज़्यादा नहीं है। बाकी के किरदार तो छोड़ ही दीजिए... क्योंकि इनसे तो सभी अनजान थे। दर्शक भी इ

हिंदी सिनेमा का वो फूहड़ दौर

हिंदुस्तानी सिनेमा के बीते दो दशक। इन दो दशकों पर गौर करें तो पता चलेगा कि हमारा सिनेमा बहुत कुछ बदल चुका है और बहुत कुछ बदल रहा है। 80 के दशक के आख़िर में सड़कों पर मवालियों की तरह नाचने वाले गोविंदा और मिथुन की फिल्मों से लेकर 90 के दशक की लिजलिजी प्रेम कहानियों, बेतुके संवादों और हिंसा से भरी फूहड़ फिल्मों को हम बहुत पीछे छोड़ आए है। क्या बतौर फिल्म प्रेमी ये बदलाव हमारे लिए राहत देने वाले नहीं है। ज़रा उस दौर को याद कीजिए जब अक्सर फिल्मों में एक ख़ास तरह के डायलॉग सुनने को मिलते थे। “कुत्ते मैं तेरा ख़ून पी जा जाऊंगा” या “मैं तुम्हारे बच्चें की मां बनने वाली हूं” या “ये तो भगवान की देन है” या फिर किसी रेप सीन से पहले बोला जाने वाला मशहूर डायलॉग “भगवान के लिए मुझे छोड़ दो” आज इन्हे सुन कर कितनी हंसी आती है। “मरते दम तक”, “जवाब हम देंगे”, “हमसे न टकराना” और “आतंक ही आतंक” न जाने कितनी फूहड़ फिल्में उस दौर में आई थी। अब तो टीवी पर भी उन फिल्मों को देखने से बचा जाता है। एक्शन सीन में हीरो का ऊल्टे जंप मारना, मशीन गन की हज़ारों गोलियां खाली हो जाना लेकिन हीरो को एक भी गोली न लगना और न ज

माय नेम इज़ ख़ान: रीव्यू

MY NAME IS KHAN में रिज़वान ख़ान हमेशा कहता हैं कि, दुनिया में दो ही किस्म के इंसान होते हैं, एक अच्छे और दूसरे बुरे। ठीक ऐसे ही हमारी फिल्में भी दो ही तरह की होती है, या तो अच्छी या बुरी। और ये कहना बिल्कुल भी ग़लत नहीं होगा कि MY NAME IS KHAN एक अच्छी फिल्म है। शुरूआत कहानी से करते है... कहानी.... फिल्म का पहला सीन शाहरूख़ के साथ हुई न्यूयॉर्क एयरपोर्ट कंट्रोवर्सी जैसा ही है। मुस्लिम होने की वजह से एयरपोर्ट पर तलाशी के दौरान रिज़वान अपनी फ्लाइट मिस कर देता है। रिज़वान का मकसद है अमेरिकन प्रेसिडंट से मिलना और बताना कि MY NAMS IS KHAN AND I’m not a terrorist. लेकिन प्रेसिडेंट से मिलना इतना आसान नहीं। कहानी फ्लैशबैक में जाती है। बचपन से ही एस्पर्गर सिंड्रॉम का शिकार रिज़वान अपनी मां की मौत के बाद अपने छोटे भाई के पास यूएस आ जाता है। यहां उसकी मुलाकात मंदिरा से होती है, फिल्म के एक सीन में रिज़वान कहता है कि वो औरों से अलग है... वो अपने जज़्बात बयां नहीं कर सकता... लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि उसे पागल समझा जाए... वो बहुत ही इंटेलिजेंट है। मंदिरा से रिज़वान को प्यार हो जाता है.. थोड़ी ना न

मुस्लिम किरदार और हिंदी सिनेमा....

बदन पर शेरवानी... हाथों में गजरा... और लड़खड़ाते कदमों के साथ शहर में किसी तवायफ के कोठे पर मुजरा सुनने पहुंचे नवाब साहब। हिंदी सिनेमा में अगर मुस्लिम किरदारों को याद करें तो.... ज़ेहन में अक्सर बस ये ही एक तस्वीर उभरती है। ये किरदार आज के ख़ान की तरह नहीं और न ही 3 इडियट्स के फरहान की तरह है। 1950 और 60 के दशक के ये मुस्लिम किरदार बेशक अपने दौर की कहानी पूरी ईमानदारी से नहीं कहते मगर फिर भी इनकी अहमियत कम नही होती। अगर आप बॉलीवुड फिल्मों के शुरूआती दौर में मुस्लिम किरदारों को देखें, तो ये कभी अक़बर बने नज़र आते है तो कभी सलीम या शाहजहां। यहां से थोड़ा आगे बढ़े तो इनकी नवाबी शान-ओ-शौकत और जलवा फिल्मों में ख़ूब दिखाई देता है। शायद लेजेंडरी डायरेक्टर गुरूदत्त पर भी ये ही जलवा असर कर गया, तभी वो फिल्म चौदहवी का चांद में लखनऊ के मुस्लिम कल्चर और किरदारों को इतना करीब से छू पाएं। हालांकि गुरू दत्त की ही एक और फिल्म प्यासा में एक मालिश वाले सत्तार का किरदार कुछ दूसरी ही तस्वीर पेश करता है। इस पूरी फिल्म में बस सत्तार ही एक किरदार है जो दर्शकों को मुस्कुराने का मौका देता है। फिल्म काबुलीवाला