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Showing posts from June, 2017

हिंदी मीडियम - पार्ट 1 (कापसे सर और उनका डर)

ये 1994-95 के सीजन की बात है... मैं 6वीं क्लास में पढ़ रहा था। हमारी क्वार्टर के पास ही एक सरकारी स्कूल था जिसे पूर्वे सर का स्कूल कहा जाता था। झक सफ़ेद कपड़े पहनने वाले पूर्वे सर थोड़ी ही दूर स्थित पाथाखेड़ा के बड़े स्कूल के प्रिंसिपल केबी सिंह की नक़ल करने की कोशिश करते थें.. लेकिन रुतबे और पढाई के स्तर में वो कहीं भी केबी सिंह की टक्कर में नहीं थें। अगर आपने कभी किसी सरकारी स्कूल को गौर से देखा हो या वहां से पढाई की हुई हो तो शायद आपको याद आ जाएगा कि ज़्यादातर स्कूलों में ड्रेस कोड का कोई पालन नहीं होता। सुबह की प्रार्थना से ग़ायब हुए लड़के एक-दो पीरियड गोल मारकर आ जाया करते हैं। उनकी जेबों में विमल, राजश्री की पुड़िया आराम से मिल जाती है और छुट्टी की घंटी बजते ही बच्चे ऐसे क्लास से बाहर निकलते हैं जैसे कि लाल कपड़ा दिखाकर उनके पीछे सांड छोड़ दिए गए हो.. ऐसे ही एक सरकारी स्कूल से मैं भी शिक्षा हासिल करने की कोशिश कर रहा था... सितंबर का महीना लग गया था... जुलाई और अगस्त में झड़ी लगाकर पानी बरसाने वाले बादल लगभग ख़ाली हो गए थे। तेज़ और सीधी ज़मीन पर पड़ती चमकती धूप के कारण सामने वाली लड़कियों की क

ये नाम नहीं, पहचान है - पार्ट 6 (धोखाधड़ी)

अभी कुछ दिनों पहले की बात है जब तांत्रिक चंद्रास्वामी अचानक इस दुनिया से चलते बने। बहुत लंबे समय तक गुमनाम ज़िन्दगी जीने के बाद एक रोज़ मौत उन्हें अपने साथ ले गयी। 90 के दशक में ऐसा कोई दिन नहीं जाता था जब टीवी या अख़बार में उस शख़्स का ज़िक्र न उठा हो। उनके साथ जुड़े तमाम विवादों को किसी छलनी से छाना जाए तो एक विवाद सबसे मोटे तौर पर नज़र आता है और वो है लक्खूभाई पाठक घोटाला, जिसे उस वक़्त मीडिया में लक्खूभाई पाठक धोखाधड़ी मामला भी कहा गया। ख़ैर ये कोई राजनितिक पोस्ट नहीं है और न ही मैं किसी विवाद पर बात कर रहा हूँ बल्कि इसी लक्खूभाई केस में छुपी है एक और दिलचस्प नाम की कहानी जो बचपन में हमारे लिए रोज़ाना के मस्ती-मज़ाक की वजह बना। मेरे क्वार्टर के बिल्कुल पीछे वाली ब्लॉक में एक लक्खू अंकल रहा करते थें। छोटे कद के, मोटे से मगर हरदम मुस्कान लिए हुए। बड़े ही अलहदा किस्म के थे लक्खू अंकल.. मस्तमौला तबीयत के मालिक, खूब खाने-पीने और हमेशा मज़ाक-मसखरी करते रहने वाले। मोहल्ले-पड़ोस में कहीं कोई उत्सव हो या सड़क से गुज़रती बरात या कोई जुलूस.. अंकल फौरन वहां पहुंचकर नाचने लगते और ऐसे मस्त होकर नाचते कि

ये नाम नहीं, पहचान है - पार्ट 5 (नमस्ते बॉलर...)

हमारे भारत देश में अभिवादन एक का बड़ा सिंपल सा तरीका है.. अपने दोनों हाथ जोड़कर हल्क़े से मुस्कुराते हुए कहना.. नमस्ते! जब कोई रिश्तेदार घर पर आये तो सामने आते ही शुरू हो जाना.. नमस्ते चाचाजी.. नमस्ते मामाजी.. नमस्ते फूफाजी और चाहे जितने भी जी आते जाए, उनके सामने बस एक नमस्ते लगाइए और सर झुकाते जाइये। अगर आप बच्चे हैं और ऐसे ही नमस्ते के साथ रिश्तेदारों के साथ पेश आते हैं तो फिर आप सभ्य और शरीफ बच्चों में गिने जाएंगे। बड़ा कमाल शब्द है नमस्ते.. और तो और सरकारी दफ़्तरों में बैठे बाबू लोगों को नमस्ते ठीक तरह से बजा दिया जाए तो समझिए की उन्हें देने वाली चाय-पानी में भी डिस्काउंट मिल जाता है।खैर, नमस्ते अंकलजी और नमस्ते बाबूजी तक तो ठीक है लेकिन आज मैं आपको एक ऐसे नमस्ते का किस्सा सुना रहा हूँ जिसके आगे लगता था बॉलर.. जी हां, उस शख़्स को लोग कहते थें नमस्ते बॉलर.. नमस्ते बॉलर का असली नाम था संजय यादव और उसे हम बचपन में चिढ़ाने के लिए अक्सर बिहारी भी बुलाया करते थें। संजय का बॉलिंग करने का बड़ा ही दिलचस्प अंदाज़ था.. बहुत छोटा सा रन-अप लेते हुए जब वो गेंद फेंकने वाला होता तो विकेट के पास