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Showing posts from November, 2009

एक बूढ़े से मुलाकात...

हाल ही में ट्रेन से मुंबई-दिल्ली का सफ़र करते हुए मेरी मुलाकात एक बुजुर्गवार से हुई। झुर्रियों से घिरे चेहरे पर उम्र का अनुभव समेटे वो शख़्स सफ़र की शुरूआत से ही एक अजीब ख़ामोशी लिए बैठा था। लेकिन जैसे-जैसे वक्त गुज़रता गया मुझे लगने लगा कि वो ख़ामोश तबियत का नहीं है बल्कि मेरी ही तरह अजनबी लोगों के बीच अपनी बात रखने के लिए एक मौके कि तलाश में है। जल्द ही अपनी रूख़ी और कहीं-कहीं दब जाने वाली आवाज़ में उसने मुझसे मेरा नाम पूछा। मेरे नाम बताने पर उसने मेरा काम पूछा। जब मैंने मेरा काम भी बता दिया तो उसके चेहरे का रंग अचानक बदल गया और मुझसे नज़रें फेर कर वो खिड़की से बाहर झांकने लगा। मैनें उससे इस बेरूख़ी का कारण पूछा... मगर वो कोई जवाब दिए बिना खिड़की से बाहर देखता रहा। थोड़ी देर चुप रहने के बाद वो दोबारा अपनी रूख़ी आवाज़ में मुझसे मुख़ातिब हुआ। "तुम्हें क्या लगता है... क्या आजकल अच्छी फिल्में बनती है?" सवाल मेरे लिए मुश्किल तो नहीं था मगर मैं जवाब देने के मूड में बिल्कुल भी नहीं था। दरअसल मैं नहीं चा

रोलैंड ऐमरिच और सिनेमाई विध्वंस

हालिया रिलीज़ फिल्म 2012 का रीव्यू करते हुए मुझे अचानक 13 साल पुरानी हॉलीवुड फिल्म इंडिपेंडेंस डे की याद आ गई। ऐसा नहीं है कि दोनों फिल्मों में बहुत ज़्यादा समानता नज़र आई हो बल्कि ऐसा इसलिए क्योंकि धरती की तबाही पर देखी गई ये मेरी पहली हॉलीवुड फिल्म थी। ज़ाहिर सी बात है सिनेमा को लेकर तब मेरी जानकारी इतनी विस्तृत नहीं थी। लेकिन हां... दीवानगी आज के जैसी ही थी। इसलिए जो कुछ भी पर्दे पर उतरता वो मेरे दिमाग़ में घर करते जाता। उस वक्त ऐसे विध्वंसात्मक दृश्य मेरे लिए किसी अजूबे से कम नहीं थे। अपने दोस्तों के साथ बैठ कर मैं घंटों तक इस फिल्म की कहानी और विशेष प्रभाव वाले दृश्यों पर बातें करता था। 90 के दशक के मध्य में रिलीज़ हुई इंडिपेंडेंस डे वाक़ई एक कमाल की फिल्म थी। धरती पर एलियन्स का अटैक होने के बाद दुनिया को बचाने के लिए (हॉलीवुड फिल्मों में दुनिया का मतलब सिर्फ़ अमेरिका और कुछ विकसीत देश होते है) दर्जन भर लोग उनसे टक्कर लेते है। इन जांबाज़ लोगों में से तीन लोग फिल्म के अहम किरदार है जिनमें एक केबल में काम करने वाला है तो दूसरा एयरफोर्स ऑफिसर। तीसरा किरदार ख़ुद अमेरिकी राष्ट्रपति का