Skip to main content

एक बूढ़े से मुलाकात...




हाल ही में ट्रेन से मुंबई-दिल्ली का सफ़र करते हुए मेरी मुलाकात एक बुजुर्गवार से हुई। झुर्रियों से घिरे चेहरे पर उम्र का अनुभव समेटे वो शख़्स सफ़र की शुरूआत से ही एक अजीब ख़ामोशी लिए बैठा था। लेकिन जैसे-जैसे वक्त गुज़रता गया मुझे लगने लगा कि वो ख़ामोश तबियत का नहीं है बल्कि मेरी ही तरह अजनबी लोगों के बीच अपनी बात रखने के लिए एक मौके कि तलाश में है। जल्द ही अपनी रूख़ी और कहीं-कहीं दब जाने वाली आवाज़ में उसने मुझसे मेरा नाम पूछा। मेरे नाम बताने पर उसने मेरा काम पूछा। जब मैंने मेरा काम भी बता दिया तो उसके चेहरे का रंग अचानक बदल गया और मुझसे नज़रें फेर कर वो खिड़की से बाहर झांकने लगा। मैनें उससे इस बेरूख़ी का कारण पूछा... मगर वो कोई जवाब दिए बिना खिड़की से बाहर देखता रहा। थोड़ी देर चुप रहने के बाद वो दोबारा अपनी रूख़ी आवाज़ में मुझसे मुख़ातिब हुआ। "तुम्हें क्या लगता है... क्या आजकल अच्छी फिल्में बनती है?" सवाल मेरे लिए मुश्किल तो नहीं था मगर मैं जवाब देने के मूड में बिल्कुल भी नहीं था। दरअसल मैं नहीं चाहता था कि एक अजीब से और पकी हुई उम्र वाले शख़्स पर अपना फिल्मी नॉलेज बर्बाद करूं, सो कह दिया... "आपने मुझसे ज़्यादा फिल्में देखी होगी... आप ही बताइये।" मेरे इस तरह सवाल मोड़ देने पर वो मुस्कुराया और बोला.. "तुमने बताया कि तुम फिल्म क्रिटिक हो इसलिए जानना चाहा कि फिल्मों को लेकर तुम्हारी समझ कितनी है.... मगर मैं माफ़ी चाहूंगा दोस्त... मुझे नहीं लगता कि तुम्हे फिल्मों के बारें में ज़्यादा कुछ पता है।" उस बूढ़े शख़्स की इस बात ने मुझे अंदर तक चिढ़ा कर रख दिया। मैनें सोचा कि रेल्वे का एक रिटायर्ड शख़्स (बातों-बातों में पता चला कि वो रेल्वे से रिटायर्ड है) कैसे मेरे सिनेमाई ज्ञान पर सवाल उठा सकता है। जबकि वो मेरे और मेरे काम के बारें में ज़्यादा कुछ जानता भी नहीं। मैने कहा.. "जनाब आप बजा फरमाते हैं... लेकिन आपने कैसे जाना कि मेरा सिनेमाई इल्म कुछ कम है।" उसका जवाब था... "तुम्हारी उम्र सिनेमा देखने कि है ना कि उसके अच्छे या बुरे होने की बात उठाने की। वैसे भी मैनें कभी तुम्हें टीवी पर नहीं देखा और ना ही तुम्हारा नाम सुना है।" यहां मेरे लिए चुप रहना ही बेहतर था। मुझे लगने लगा था कि ये साठ पार होने से दिमाग़ पर पड़ने वाला असर है, सो मैं चुपचाप रहा। उधर बुजुर्गवार ने अपनी ज़ुबान हिलाना बदस्तूर जारी रखा... "अगर तुम सच में सिनेमा के जानकार हो तो बताओ पहली हिंदी फिल्म कौन सी थी? " बूढ़े ने मेरी ओर पहला सीधा सवाल दागा... "राजा हरिश्चन्द्र" मैने सीधा सा जवाब दिया लेकिन तुरंत ही अगला सवाल आया "हरिश्चन्द्र कौन था?" इस बार मैनें कहा... "माफी चाहूंगा साहब मैं माइथालॉजिकल सीरियल नहीं देखता.... लेकिन फिर भी इतना जानता हूं वो कोई मशहूर राजा थे और अपने सच बोलने के लिए जाना जाता था।" इस बार बूढ़ा कुछ संतुष्ट दिखा लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि उसके सवाल ख़त्म हो गए थे। दो ही सेकेंड बाद बूढ़े ने मुझ पर अगला सवाल दागा...."हिंदुस्तान की पहली बोलती फिल्म कौन सी थी" इस सवाल पर मैं मुस्कुरा दिया। बिल्कुल उसी तरह जब क्रिकेट में बैटिंग करते हुए मेरे सामने कोई कमज़ोर गेंद आ जाती थी। मैनें बड़े आराम से कहा... "पहली बोलती फिल्म आलमआरा थी... जो 1931 में रिलीज़ हुई... निर्देशक अर्देशर ईरानी और हीरो मास्टर विट्ठल थे।" पहली बार मैनें उसकी सवालिया नज़रों पर जवाबों का परदा पड़ते देखा। बूढ़े ने कुछ देर के लिए ज़ुबान हिलाना बंद कर दी। पहले तो मुझे लगा कि उसे मुझे कच्चा खिलाड़ी समझने की ग़लती का एहसास हो गया है लेकिन अगे ही सवाल के आते मुझे पता चला कि वो इतनी देर इसलिए चुप रहा ताकि अपने ज़ेहन मे से कोई मुश्किल सवाल उठा कर मुझ पर मारे। बूढ़े ने पूछा...."अच्छा बताओ... अर्देशर ईरानी कौन था और उसने कौन-कौन सी फिल्में बनाई।" मुझे बूढ़ें के ऐसे सवाल पूछने पर बचपन में देखी विक्रम और वेताब की याद ताज़ा हो गई। मैं समझ गया कि आज वेताल मेरे सामने नए रूप में है और इसके सवाल कभी ख़त्म नहीं होने वाले। इसलिए बेहतर होगा कि मैं अपनी बर्थ पर जाकर सो जाऊं... लेकिन नया सवाल तो उसने पूछ ही लिया था अगर जवाब दिए बिना जाता तो मेरी कोई इज़्ज़त नहीं रह जाती। सो मैने जवाब दिया... "जनाब अर्देशर ईरानी को हिंदुस्तानी सिनेमा के शुरूआती फिल्ममेकर्स में से एक माना जाता है। उन्होने हिंदी के अलावा अंग्रेजी, जर्मन और तमिल तक में फिल्में बनाई। एक मशहूर फिल्ममेकर के साथ ही वो जाने-माने उद्योगपति भी थे। आलमआरा के अलावा उनके खाते में वीर अभिमन्यू और किशन कन्हैया जैसी फिल्में दर्ज है। लेकिन अफ़सोस मैनें वो सारी देखी नहीं... अगर आपके पास हो तो मुझे भिजवा दीजिएगा.... आपकी बहुत मेहरबानी होगी।" मैनें इतना कहा और सोने की तैयारी करने लगा.... तभी बूढ़े की आवाज़ आई..."क्या तुम सोने जा रहे हो?" मैं जैसे चौंक गया... क्योंकि इस बार उसकी आवाज़ बेहद नर्म थी। मैने कहा.. "जी हां... मुझे नींद आ रही है वैसे भी कल सुबह दिल्ली पहुंचने पर सीधे ऑफिस जाना पड़ेगा।" मैं उसके सवालों से चिढ़ चुका था और शायद उसने भी इस बात का एहसास कर लिया था... "ठीक है सो जाओ... लेकिन एक आख़िरी बात बताते जाओ।" मैंने सोचा जब इसे इतना झेल लिया तो एक सवाल के लिए और सही... "कौन सी बात?" मैंने बूढ़े की ओर देख कर पूछा। वो कुछ देर तक मेरी आंखों में देखता रहा और फिर बोला... "बेटा क्या तुम हमेशा पूरी ईमानदारी से फिल्मों पर अपनी राय देते हो?" मैं अपनी बर्थ पर चढ़ते-चढ़ते रूक गया। एक नज़र बूढ़े पर डाली और वापस आकर बैठ गया... इसके बाद आने वाले सात घंटे हम दोनों ने सिर्फ़ और सिर्फ़ सिनेमा पर बातें की। अर्देशर ईरानी तक तो हम पहले ही पहुंच गए थे बाद में मेहबूब ख़ान, बिमल रॉय और व्ही शांताराम से होते हुए गुरू दत्त और राजकपूर तक आए। राज और गुरू पर हमने देर तक बातें की... दोनों में कौन बेहतर था इस पर भी बहस हुई ये बात अलग है कि नतीज़ा कुछ नहीं निकला। सुबह होते तक हमारी बहस मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा के सिनेमा से होते हुए राजकुमार संतोषी और संजय लीला भंसाली तक के सिनेमा पर आ गई। आख़िर में जब वो फरीदाबाद में मुझसे विदा लेने के लिए उठे तो उन्होने इतना ही कहा कि वो एक जाने-माने फिल्म संस्थान से पढ़े हुए थे और किसी ज़माने में फिल्म डायरेक्टर बनने मुंबई भी गए थे। मगर उनका ख़्वाब पूरा न हो सका... सो मजबूरन रेल्वे में नौकरी करनी पड़ी। उनके जाते ही मैं अपनी बर्थ पर आ गया.... और ट्रेन की छत को देखते हुए अपने आप को मुंबई की सड़कों पर घूमता देखने लगा।

Comments

Popular posts from this blog

हिंदी मीडियम - पार्ट 1 (कापसे सर और उनका डर)

ये 1994-95 के सीजन की बात है... मैं 6वीं क्लास में पढ़ रहा था। हमारी क्वार्टर के पास ही एक सरकारी स्कूल था जिसे पूर्वे सर का स्कूल कहा जाता था। झक सफ़ेद कपड़े पहनने वाले पूर्वे सर थोड़ी ही दूर स्थित पाथाखेड़ा के बड़े स्कूल के प्रिंसिपल केबी सिंह की नक़ल करने की कोशिश करते थें.. लेकिन रुतबे और पढाई के स्तर में वो कहीं भी केबी सिंह की टक्कर में नहीं थें। अगर आपने कभी किसी सरकारी स्कूल को गौर से देखा हो या वहां से पढाई की हुई हो तो शायद आपको याद आ जाएगा कि ज़्यादातर स्कूलों में ड्रेस कोड का कोई पालन नहीं होता। सुबह की प्रार्थना से ग़ायब हुए लड़के एक-दो पीरियड गोल मारकर आ जाया करते हैं। उनकी जेबों में विमल, राजश्री की पुड़िया आराम से मिल जाती है और छुट्टी की घंटी बजते ही बच्चे ऐसे क्लास से बाहर निकलते हैं जैसे कि लाल कपड़ा दिखाकर उनके पीछे सांड छोड़ दिए गए हो.. ऐसे ही एक सरकारी स्कूल से मैं भी शिक्षा हासिल करने की कोशिश कर रहा था... सितंबर का महीना लग गया था... जुलाई और अगस्त में झड़ी लगाकर पानी बरसाने वाले बादल लगभग ख़ाली हो गए थे। तेज़ और सीधी ज़मीन पर पड़ती चमकती धूप के कारण सामने वाली लड़कियों की क

ख़तरनाक है देशभक्ति फिल्मों के प्रति दर्शकों की उदासीनता

करीब 10 महीने बाद ब्लॉग लिखने बैठा हूं। आप समझिए कि बस इस कदर मजबूर हुआ कि रहा नहीं गया। बीते रविवार मुंबई में था जहां मैं आशुतोष गोवारिकर की फिल्म ‘खेलें हम जी जान से’ देखने पहुंचा। गौरतलब है कि नौकरी छोड़ने के बाद मैने फिल्में देखना कम कर दिया है। बहुत सारे फिल्म पंडितों के विचार जानने और समीक्षाएं पढ़ने के बाद मैने फिल्म देखी। अफ़सोस केवल अजय ब्रह्मात्मज जी ने ही अपनी समीक्षा में फिल्म की प्रशंसा की। वहीं अंग्रेजी भाषा के सभी फिल्म समीक्षकों से तो आशुतोष की भरपूर आलोचना ही सुनने और देखने को मिली। फिल्म के निर्देशन, पटकथा, संवाद और लंबाई को लेकर सभी ने अपनी ज़ुबान हिला-हिला कर आशुतोष को कोसा। ये आलोचक भूल गए कि जो विषय परदे पर है वो अब से पहले अनछूआ था। जो किरदार आंखों के सामने हैं उनसे ये फिल्म पंडित खुद भी अंजान थे। क्या ये बड़ी बात नहीं कि श्रीमान गोवारिकर ने ऐसे ग़ुमनाम नायकों को सामने लाने की कोशिश की जिनसे हमारा परिचय ही नही था। सूर्ज्यो सेन का ज़िक्र इतिहास की किताबों में चार लाइनों से ज़्यादा नहीं है। बाकी के किरदार तो छोड़ ही दीजिए... क्योंकि इनसे तो सभी अनजान थे। दर्शक भी इ

ये नाम नहीं, पहचान है - पार्ट 6 (धोखाधड़ी)

अभी कुछ दिनों पहले की बात है जब तांत्रिक चंद्रास्वामी अचानक इस दुनिया से चलते बने। बहुत लंबे समय तक गुमनाम ज़िन्दगी जीने के बाद एक रोज़ मौत उन्हें अपने साथ ले गयी। 90 के दशक में ऐसा कोई दिन नहीं जाता था जब टीवी या अख़बार में उस शख़्स का ज़िक्र न उठा हो। उनके साथ जुड़े तमाम विवादों को किसी छलनी से छाना जाए तो एक विवाद सबसे मोटे तौर पर नज़र आता है और वो है लक्खूभाई पाठक घोटाला, जिसे उस वक़्त मीडिया में लक्खूभाई पाठक धोखाधड़ी मामला भी कहा गया। ख़ैर ये कोई राजनितिक पोस्ट नहीं है और न ही मैं किसी विवाद पर बात कर रहा हूँ बल्कि इसी लक्खूभाई केस में छुपी है एक और दिलचस्प नाम की कहानी जो बचपन में हमारे लिए रोज़ाना के मस्ती-मज़ाक की वजह बना। मेरे क्वार्टर के बिल्कुल पीछे वाली ब्लॉक में एक लक्खू अंकल रहा करते थें। छोटे कद के, मोटे से मगर हरदम मुस्कान लिए हुए। बड़े ही अलहदा किस्म के थे लक्खू अंकल.. मस्तमौला तबीयत के मालिक, खूब खाने-पीने और हमेशा मज़ाक-मसखरी करते रहने वाले। मोहल्ले-पड़ोस में कहीं कोई उत्सव हो या सड़क से गुज़रती बरात या कोई जुलूस.. अंकल फौरन वहां पहुंचकर नाचने लगते और ऐसे मस्त होकर नाचते कि