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Showing posts from 2009

थ्री इडियट्स: फिल्म रीव्यू

अपने दिल की सुनो.... अपने मन की करो.... ज़िंदगी एक बार मिलती है और इसे अपने ही तरीके से जीयो। साफ और सीधे तौर पर 3 इडियट्स का मैसेज ये ही है। अफ़सोस कि ये फिल्मी सी लगने वाली बातें स्कूल या कॉलेज में नहीं सीखाई जाती... घर पर मां बाप भी नहीं सीखाते। इसलिए इन्हें सीखाने ख़ुद आमिर और उनकी टीम को आगे आना पड़ा। हिंदुस्तान को जादू की झप्पी और गांधीगिरी सीखाने वाले राजकुमार हीरानी को भी शायद इसलिए ऑल इज़ वेल का नारा देना पड़ा। कहानी... 3 इडियट्स की कहानी चेतन भगत के नॉवेल फाइव प्वाइंट समवन पर बेस्ड है... लेकिन स्क्रीनप्ले और ट्रीटमेंट में मेज़र चेंजेज़ है... जो ज़रूरी भी थे। फिल्म की कहानी फरहान कुरैशी यानी आर माधवन के फ्लाइट छोड़ कर भागने से शुरू होती है और आगे ऐसी रफ्तार पक़डती है जो क्लाइमेक्स पर जाकर ही थमती है। फरहान अपने दोस्त राजू यानि शरमन जोशी को साथ लेकर अपने तीसरे दोस्त रैंचो यानि आमिर को ढूंढने निकलता है... जो कॉलेज के बाद कहीं खो गया था। इस पूरे सफ़र के दौरान कहानी फ्लैशबैक में आती-जाती रहती है। कॉलेज के शुरूआती दिनों में फरहान और राजू के साथ रैंचो की मुलाकात और फिर तीनों की मौज

टाइगर वुड्स और बेरहम मीडिया

आज सुबह अख़बार पलटते हुए टाइगर वुड्स पर प्रीतिश नंदी का लेख पढ़ने को मिला। मैं बहुत पहले से ही नंदी साहब के लेखन का क़ायल रहा हूं। वो कमाल का लिखते है और ये बात जगज़ाहिर है। जब अमेरिका और हिंदुस्तान समेत दुनिया भर का मीडिया टाइगर वुड्स के चरित्र की धज्जियां उड़ा रहा है तब नंदी साहब का ये लेख वाक़ई सोचने पर मजबूर कर देता है। क्या वुड्स सचमुच में खलनायक है? किसी महान खिलाड़ी के किरदार की बखिया सिर्फ इसलिए उधेड़ दी जाए क्योंकि वो अपनी बीवी के साथ वफ़ा नहीं कर सका। आप एक खिलाड़ी की महानता उसके खेल के आधार पर तय करते सकते है न कि उसकी निज़ी ज़िंदगी के आधार पर। कोई शख़्स अपने बेडरूम में क्या कर रहा है और कैसे कर रहा है इस पर मीडिया या किसी अन्य को सवाल उठाने का हक़ नहीं है। ये उसका अपना मामला है। जैसा कि अब तक साफ़ है वुड्स ने किसी का बलात्कार नहीं किया.. और न किसी पर दबाव डाल कर संबंध बनाएं। जिन भी महिलाओं के साथ वुड्स के संबंध रहे वो उनकी आपसी रज़ामंदी से बने है। फिर वुड्स दोषी कैसे हो सकते है? अगर वो दोषी हैं भी तो अपनी पत्नी के न कि संपूर्ण राष्ट्र या विश्व के। और मीडिया के तो बिल्कुल भी

एक बूढ़े से मुलाकात...

हाल ही में ट्रेन से मुंबई-दिल्ली का सफ़र करते हुए मेरी मुलाकात एक बुजुर्गवार से हुई। झुर्रियों से घिरे चेहरे पर उम्र का अनुभव समेटे वो शख़्स सफ़र की शुरूआत से ही एक अजीब ख़ामोशी लिए बैठा था। लेकिन जैसे-जैसे वक्त गुज़रता गया मुझे लगने लगा कि वो ख़ामोश तबियत का नहीं है बल्कि मेरी ही तरह अजनबी लोगों के बीच अपनी बात रखने के लिए एक मौके कि तलाश में है। जल्द ही अपनी रूख़ी और कहीं-कहीं दब जाने वाली आवाज़ में उसने मुझसे मेरा नाम पूछा। मेरे नाम बताने पर उसने मेरा काम पूछा। जब मैंने मेरा काम भी बता दिया तो उसके चेहरे का रंग अचानक बदल गया और मुझसे नज़रें फेर कर वो खिड़की से बाहर झांकने लगा। मैनें उससे इस बेरूख़ी का कारण पूछा... मगर वो कोई जवाब दिए बिना खिड़की से बाहर देखता रहा। थोड़ी देर चुप रहने के बाद वो दोबारा अपनी रूख़ी आवाज़ में मुझसे मुख़ातिब हुआ। "तुम्हें क्या लगता है... क्या आजकल अच्छी फिल्में बनती है?" सवाल मेरे लिए मुश्किल तो नहीं था मगर मैं जवाब देने के मूड में बिल्कुल भी नहीं था। दरअसल मैं नहीं चा

रोलैंड ऐमरिच और सिनेमाई विध्वंस

हालिया रिलीज़ फिल्म 2012 का रीव्यू करते हुए मुझे अचानक 13 साल पुरानी हॉलीवुड फिल्म इंडिपेंडेंस डे की याद आ गई। ऐसा नहीं है कि दोनों फिल्मों में बहुत ज़्यादा समानता नज़र आई हो बल्कि ऐसा इसलिए क्योंकि धरती की तबाही पर देखी गई ये मेरी पहली हॉलीवुड फिल्म थी। ज़ाहिर सी बात है सिनेमा को लेकर तब मेरी जानकारी इतनी विस्तृत नहीं थी। लेकिन हां... दीवानगी आज के जैसी ही थी। इसलिए जो कुछ भी पर्दे पर उतरता वो मेरे दिमाग़ में घर करते जाता। उस वक्त ऐसे विध्वंसात्मक दृश्य मेरे लिए किसी अजूबे से कम नहीं थे। अपने दोस्तों के साथ बैठ कर मैं घंटों तक इस फिल्म की कहानी और विशेष प्रभाव वाले दृश्यों पर बातें करता था। 90 के दशक के मध्य में रिलीज़ हुई इंडिपेंडेंस डे वाक़ई एक कमाल की फिल्म थी। धरती पर एलियन्स का अटैक होने के बाद दुनिया को बचाने के लिए (हॉलीवुड फिल्मों में दुनिया का मतलब सिर्फ़ अमेरिका और कुछ विकसीत देश होते है) दर्जन भर लोग उनसे टक्कर लेते है। इन जांबाज़ लोगों में से तीन लोग फिल्म के अहम किरदार है जिनमें एक केबल में काम करने वाला है तो दूसरा एयरफोर्स ऑफिसर। तीसरा किरदार ख़ुद अमेरिकी राष्ट्रपति का

जैक्सन जैसा कोई नहीं....

26 जून 2009, हर रोज़ की तरह ही सुबह-सुबह तैयार होकर ऑफिस के लिए निकलता हूं। सड़क पर आकर रिक्शा लिया ही था कि अपने दोस्त रामेश्वर मिश्रा का एसएमएस पाता हूं। पढ़ने पर पता चला कि किंग ऑफ पॉप नहीं रहे। पहले तो यकीन नहीं आया... क्योंकि कई बार एमजे की मौत पर इस तरह की ख़बरें सुन चुका था जो कि बाद में महज़ अफवाह साबित हुई। लेकिन बात एमजे की थी इसलिए वापस रामेश्वर को फोन लगाकर पूछता हूं। वो ख़बर को पुख़्ता बताता है.... वो भी बीबीसी के हवाले से। फिर भी पूरा यकीं नही आता और अपने मित्र और गुरु भूपेंद्र सोनी को फोन लगाकर टीवी देखने को कहता हूं और कुछ देर बाद वो ख़बर को सच बताते है। ऑफिस तक आते-आते कई सारे विचार आते है... सबसे पहला ये कि अपने शो में एमजे को किस तरह से आख़िरी सलाम दूं जबकि मेंरे पास सिर्फ एक दिन है। वहीं पहले से तैयार सारे पैकेजस भी बदलने पड़ते। ऑफिस के अंदर दाखिल होने पर पता चला कि अपने शो के अलावा शाम को भी माइकल पर आधे घंटे का स्पेशल करना है। आनन-फानन में लिखने बैठता हूं लेकिन दिल और दिमाग़ काम नहीं करता... और ना ही अंगुलिया चलती है की-बोर्ड पर। और चले भी कैसे ? माइकल जैसे महान औ

सिनेमा... ये मेरा दीवानापन है

मैं सिनेमा की ओर कब आकर्षित हुआ या फिल्मों से मेरा पहला परिचय कब हुआ ? आज जब किसी फिल्म की आलोचना करने जाता हूं तो सबसे पहले ये ही सवाल आता है कि ये काम करने के लिए मैं कितना मौजूं शख़्स हूं ? महज़ फिल्में देख-देख कर या फिर दो साल तक बॉक्स ऑफिस को प्रोड्यूस कर क्या मैं इतना क़ाबिल हो गया हूं कि किसी फिल्म को अच्छा या बुरा कह सकूं। साहब इस अहम सवाल का जवाब बहुत पीछे जाने पर मिलता है। शायद मेरे जन्म से भी पहले... ये तय हो गया था कि मैं ज़िंदगी में क्या करूंगा... क्या बनूंगा। मैं मध्य प्रदेश के छोटे से कस्बे सारनी का रहने वाला हूं। मां से सुना है कि मेरे पिता अपनी आठ घंटे की सरकारी नौकरी के बाद बचा हुआ समय सिर्फ और सिर्फ फिल्में देखने में बिताया करते थे। अमिताभ बच्चन हो या धर्मेंद्र... या फिर जीतेंद्र या विनोद खन्ना ही क्यों ना हो.... पापा ने किसी की फिल्म नहीं छोड़ी। लेकिन उन पर सबसे ज़्यादा असर था दिलीप कुमार का और ये असर कितना था आप मेरे नाम से ही जान जाएंगे.... जी हां मेरा नाम दिलीप साहब के लिए मेरे पापा की दीवानगी का सबूत है। मैने बचपन एक संयुक्त परिवार में बिताया... जहां मैं अपनी दो