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क्रिकेट का जुनून और वो गुज़रा हुआ ज़माना...

पिछले दिनों की बात है, इंडिया-ऑस्ट्रेलिया के बीच हुए वर्ल्ड टी20 मैच के अगले दिन हवाई पट्टी की तरफ जाना हुआ। मुझे याद है, हर बड़े मैच में इंडिया की जीत के बाद हवाई पट्टी का मैदान स्कूली बच्चों से भर जाता था। हाथ में बैट और बॉल थामें लड़कों के अलग-अलग झुंड और भी ज़्यादा जोश के साथ क्रिकेट ख़ेलने निकल आते थें। जिन्हें मैदान में जगह नहीं मिलती थीं, वो लड़के स्कूलों के ग्राउंड में जाकर ख़ेलने लग जाते। अफ़सोस ये गुज़रे दौर की बातें हैं, उस रोज़ तो मुझे पट्टी पर वैसा कुछ भी नज़र नहीं आया। खुले मैदान पर गिने-चुने लोग थें, जिनमें कुछ अधेड़ उम्र की औरतें और आदमी शामिल थें। जो हर शाम की तरह हवाई पट्टी पर टहलने आए थें, इस उम्मीद से कि कुछ मिनटों की वॉक से उनके फूले हुए पेट पिचक जाएंगे। कुछ लड़के भी थें, जो दूर कोने में खड़े होकर आने-जाने वालों से बेख़बर सिगरेट फूंक रहे थें। मैदान पर जगह-जगह बीयर और शराब की टूटी हुई बोतलें पड़ी थीं। इक्का-दुक्का कारें थीं जिसमें बैठे लोग ड्राइव करने की प्रेक्टिस कर रहे थें। अगर कुछ नहीं था तो क्रिकेट ख़ेलते लड़कों का वो सीन जिसकी हमें आदत रही हैं। एक रोज़ मैंने कुछ स्कूल जाने वाले कुछ लड़कों से पूछा कि वो लोग ग्राउंड में जाकर क्रिकेट क्यों नहीं ख़ेलते? जवाब सिंपल था... “भैय्या कोई भी नहीं ख़ेलता।“ ज़ाहिर सी बात हैं, जब आपके मोबाइल पर ही लेटेस्ट गेम्स, यूट्यूब वीडियोज़, फेसबुक और वॉट्सएप मौजूद हैं तो कोई मैदान में दौड़-भाग कर अपनी एनर्जी क्यों ख़राब करें। रही बात एंटरटेनमेंट की, तो अगर वो छोटी सी स्क्रीन पर ही मिल रहा हैं तो फिर मैदान तक जाने की ज़ेहमत कौन उठाएं। क्रिकेट एक ऐसा गेम हैं जहां आपके साथ लड़कों का एक झुंड होना चाहिए। आज के दौर में तो सभी के हाथ में दिल बहलाने का ख़िलौना है। ऐसे में कौन भला ज़िंदा दोस्त बनाए, उससे दोस्ती निभाएं और अपना क़ीमती वक़्त गवाएं। वैसे भी, मोबाइल से हटने के बाद टीवी भी देखनी होती हैं और फिर उसके बाद पढ़ाई को भी तो कुछ वक़्त देना लाज़िमी है। अपना दौर याद करूं तो याद आता है कि उन दिनों ज़्यादातर बच्चों के घरों में बीएसएनएल वाले डिब्बा फोन भी नहीं होते थें, मोबाइल तो सात-आठ साल दूर की बात थीं। फिर भी रोज़ाना एक तय वक़्त और तय जगह पर सारे लड़के मिल ही जाते थें। हमसे छोटे बच्चों में भी क्रिकेट को लेकर इतना जुनून था कि उन्हें बराबर मालूम होता था कि कौन से भैय्या का घर कहां पर हैं और उन्हें कब बुलाने जाना है। वो बिना कहे ही अपने काम पर लग जाते थें, जबकि मैदान में उनके हिस्से सिर्फ थर्ड मैन पर फील्डिंग और मैच के बाद एक-एक ओवर की बैटिंग ही तो आती थीं। फिर भी क्रिकेट के लिए उनकी दीवानगी देखते ही बनती थीं।
हमेशा एक सवाल मन में आता है कि जब पंद्रह या बीस साल पहले सारनी में क्रिकेट को लेकर इतनी दीवानगी थी तो यहां से कोई जाना-पहचाना ख़िलाड़ी क्यों नहीं निकला? इसका जवाब कोई बहुत मुश्क़िल नहीं है। एक छोटे से क़स्बे में सीरियसली क्रिकेट ख़ेलने के लिए ज़रूरी सामान जुटाना बहुत मुश्क़िल था। स्कूलों में ख़ेल का पीरियड भी वाहियात ख़ेलों की भेंट चढ़ जाता था या फिर लड़के उसे मस्ती करते हुए गुज़ार देते। हमारे मां-बाप भी यही चाहते थें कि बच्चे पढ़-लिखकर डॉक्टर या इंजीनियर बन जाएं जबकि उस वक़्त सचिन अपनी ज़िंदगी का सबसे बेहतरीन क्रिकेट ख़ेल रहा था। बड़े शहरों में तो बहुत से मां-बाप जान गए थें कि क्रिकेट में कामयाबी ज़िंदगी बना सकती हैं इसलिए उन्होंने अपने बच्चों को क्रिकेट की कोचिंग के लिए भेजना शुरू कर दिया था। लेकिन हम जैसे क़स्बाई लोगों के लिए कोचिंग तो छोड़िए बैट और पैड तक जुगाड़ना मुश्क़िल था। एक बॉल ख़रीदने के लिए भी लड़कों को अपनी आइसक्रीम और चॉकलेट की क़ुर्बानी देनी पड़ती थीं।
हमारे वक़्त के एक फास्ट बॉलर फ़रीद ख़ान के मुताबिक - “सारनी में लड़के सिर्फ एंटरटेनमेंट के लिए ही क्रिकेट ख़ेलते थें, कोई भी टेनिस बॉल छोड़कर लेदर बॉल की तरफ नहीं जाना चाहता था। फिर उस पर कोई भी ऐसा शख़्स नहीं था जो ये कहे कि क्रिकेट को करियर बनाया जा सकता है। हमने ख़ुद अपना बॉलिंग एक्शन बनाया और ख़ुद से ही बैटिंग के दौरान शॉट सेलेक्शन के तरीके ढूंढ निकाले। सारनी के लड़कों में एक बेहतर करियर का डर हमेशा क्रिकेट के जुनून पर भारी रहा। शायद हम ही आख़िरी पीढ़ी के लोग थें, जो कॉर्क बॉल से क्रिकेट खेलना पसंद करते थें, वो भी रोज़ कोई ना कोई चोट खाकर।“ इंडिया के कई छोटे शहरों से आए लड़के नेशनल टीम में जगह बना चुके हैं और जिन्हें जगह नहीं मिली वो आईपीएल में अपना हूनर दिखा रहे हैं। जबकि हमारे अपने क़स्बे में क्रिकेट और आगे बढ़ने की बजाय ख़त्म होने की कगार पर आ पहुंचा है। कहीं ऐसा न हो कि कुछ साल बाद जब हम यहां कि गलियों से गुज़रें और मालूम चले की यहां के लड़के क्रिकेट कैसे ख़ेलते हैं ये ही भूल गए हैं। काश! कुछ ऐसा हो कि यहां के स्कूलों में बच्चों को ढंग की क्रिकेट किट मुहैया कराई जाएं। मां-बाप ये समझे कि एक क्रिकेटर बनकर भी करियर बनाया जा सकता है और बच्चों को बताया जाएं कि बेटा, क्रिकेट सिर्फ टीवी पर देखने वाला गेम नहीं है, बल्कि इसे मैदान में ख़ेला भी जाता है।

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