ये 1994-95 के सीजन की बात है... मैं 6वीं क्लास में पढ़ रहा था। हमारी क्वार्टर के पास ही एक सरकारी स्कूल था जिसे पूर्वे सर का स्कूल कहा जाता था। झक सफ़ेद कपड़े पहनने वाले पूर्वे सर थोड़ी ही दूर स्थित पाथाखेड़ा के बड़े स्कूल के प्रिंसिपल केबी सिंह की नक़ल करने की कोशिश करते थें.. लेकिन रुतबे और पढाई के स्तर में वो कहीं भी केबी सिंह की टक्कर में नहीं थें।
अगर आपने कभी किसी सरकारी स्कूल को गौर से देखा हो या वहां से पढाई की हुई हो तो शायद आपको याद आ जाएगा कि ज़्यादातर स्कूलों में ड्रेस कोड का कोई पालन नहीं होता। सुबह की प्रार्थना से ग़ायब हुए लड़के एक-दो पीरियड गोल मारकर आ जाया करते हैं। उनकी जेबों में विमल, राजश्री की पुड़िया आराम से मिल जाती है और छुट्टी की घंटी बजते ही बच्चे ऐसे क्लास से बाहर निकलते हैं जैसे कि लाल कपड़ा दिखाकर उनके पीछे सांड छोड़ दिए गए हो.. ऐसे ही एक सरकारी स्कूल से मैं भी शिक्षा हासिल करने की कोशिश कर रहा था...
सितंबर का महीना लग गया था... जुलाई और अगस्त में झड़ी लगाकर पानी बरसाने वाले बादल लगभग ख़ाली हो गए थे। तेज़ और सीधी ज़मीन पर पड़ती चमकती धूप के कारण सामने वाली लड़कियों की क्लास में कुछ भी देख पाना मुश्किल हो गया था। बस, थोड़ी-थोड़ी देर में उधर से लड़कियों की उह-आह की आवाज़ सुनाई पड़ जाती और एक जाना पहचाना डर हम सभी लड़कों की नसों में बहने लगता... टाटपट्टी पर बैठे हम लडकों को ये मालूम था कि होमवर्क न करने वाली लड़कियों की नाज़ुक हथेलियों पर कापसे सर डंडे बरसा रहे हैं और अगले ही पीरियड में वो हमारी भी क्लास लेने वाले हैं। क्लास में उनकी मौजूदगी का सोचने भर से ही मैं सिहर उठता और मेरे दोस्तों समेत बाकी लड़कों का हाल भी वैसा ही था।
चेहरे पर चेचक से बने गड्ढे, औसत सा क़द और आवाज़ तो ऐसी थी जैसे सूपे में कई सारे कंकर एक साथ खनक रहे हों... इस तरह कापसे सर की शख़्सियत ऐसे शिक्षक की बन चुकी थी जो अपनी मौजूदगी भर से या कई बार दूर से आवाज़ देकर ही लड़कों के मन में एक ख़ौफ़ भर सकता था। उस पर हाथ में हमेशा ही रहने वाला मोटा सा डंडा तो मानों क़हर से कम नहीं था।
ये बहुत दिलचस्प बात है कि मुझे अपनी ज़िन्दगी में फिर कभी वैसा डर नहीं लगा.. कभी भी नहीं। न किसी दूसरे स्कूल के टीचर से.. न भूत-पिशाच से.. और न तो अपने बॉस से..। आज भी मैं जब कभी उस क्लास में मेरे साथ रहे लड़कों से कापसे सर और उनके पीरियड के बारे में याद दिलाता हूँ तो वो भी ये मानते हैं कि उनका डर कुछ अलग ही था। आप बस सोचकर देखिये कि एक शिक्षक आपके ठीक सामने नज़र आ रही एक क्लास में बेचारी लड़कियों तक पर मोटे-मोटे डण्डे बरसा रहा है और बस एक घंटी बजने की देर है.. और फिर वो ही टीचर अपने उसी डंडे के साथ आपकी क्लास में होगा.. उसके बाद क्या होता था ये बताने की अब ज़रूरत नहीं है।
आज भी यकीन नहीं होता लेकिन जिस टीचर से मुझे इस क़दर डर लगा.. उसने कभी मुझे एक चांटा तक नहीं मारा था। मैं नहीं जानता कि कैसे मैं कापसे सर की कमर तोड़ कूटाई से बचा रह गया जबकि मेरे सारे दोस्त उनके हाथ मार खाने का सौभाग्य प्राप्त कर चुके। उस वक़्त लड़कों को लगता था कि मेरे नाम में भी जो कापसे लगा है उस वजह से कापसे सर ने मुझे नहीं धोया.. जबकि मेरा ये मानना है कि ये तो विशेष वजह होनी चाहिए थी उनके हाथ मेरी धुलाई की.. दरअसल कापसे सर सोशल साइंस पढ़ाया करते थे और मैं इसी एक सब्जेक्ट में सबसे ज़्यादा दिलचस्पी लेता था। अपने होमवर्क से लेकर मंथली टेस्ट और बुक रीडिंग में कभी ऐसा मौका आया ही नहीं जहाँ वो मुझ पर अपने हाथ आज़माते।
वैसे भी हमने तो उस दौर में पढाई की है जब स्कूल मास्टर अपने छात्रों को लात-घूंसों और डंडों से मारना अपना सरकारी अधिकार समझते थें। वो रोज़ अपनी-अपनी बीवियों की झिकझिक सुनकर आते और फिर सारी खीझ अपने छात्रों पर उतारते। उस पर हद ये कि बेचारे बच्चों के माँ-बाप जब भी किसी शिक़ायत की वजह से स्कूल में बुलवाये जाते तो वो भी मास्टर को खुली छूट दे देते कि "मास्साब इसकी तो खूब तबीयत से धुनाई कीजिये.." जैसे उन्होंने औलाद नहीं गद्दे के लिए सफ़ेद रुई पैदा की थी कि जिसे बस कोई भी आये और आकर धुनता चला जाए।
मुझे आजकल के स्कूल्स और टीचर देखकर बहुत सुकून मिलता है। ऐसा नहीं की बहुत बड़ा सुधार हो गया है हमारे एजुकेशन सिस्टम में.. लेकिन अब बच्चों को बेवजह की डांट और मारपीट से मुक्ति मिली हैं। वरना कितनी दफ़ा शिक्षकों की मार से मासूम बच्चों के सिर फूटे, हाथ-पैर टूटे और कईयों की आँख तक चली गयी।
स्कूल जाने की उम्र सचमुच में बड़ी नाज़ुक होती है.. और इस उम्र में बच्चा जो कुछ भी देखता है, जो कुछ झेलता और सहता है उसका असर आखिरी सांस तक रहता है। अब उदाहरण के लिए मुझे ही देख लीजिए.. मुझ पर अपने सरकारी स्कूल और किसी अजूबे जैसे शिक्षकों का इतना ज़्यादा असर पड़ा कि आज भी मेरे किस्सों में से उनका ज़िक्र नहीं जाता.. अक्सर लोग मेरी इसी बात को लेकर आलोचना करते हैं कि मैं अपने पुराने शिक्षकों को जायज़ सम्मान नहीं देता लेकिन असल में सच्चाई यही है कि सरकारी स्कूल और शिक्षकों ने उस तरह काम नहीं किया जैसा उन्हें करना चाहिए था और यहीं सब वजहें है जो हमारे एजुकेशन सिस्टम को आख़िर नाकाम साबित करती हैं।
करीब 10 महीने बाद ब्लॉग लिखने बैठा हूं। आप समझिए कि बस इस कदर मजबूर हुआ कि रहा नहीं गया। बीते रविवार मुंबई में था जहां मैं आशुतोष गोवारिकर की फिल्म ‘खेलें हम जी जान से’ देखने पहुंचा। गौरतलब है कि नौकरी छोड़ने के बाद मैने फिल्में देखना कम कर दिया है। बहुत सारे फिल्म पंडितों के विचार जानने और समीक्षाएं पढ़ने के बाद मैने फिल्म देखी। अफ़सोस केवल अजय ब्रह्मात्मज जी ने ही अपनी समीक्षा में फिल्म की प्रशंसा की। वहीं अंग्रेजी भाषा के सभी फिल्म समीक्षकों से तो आशुतोष की भरपूर आलोचना ही सुनने और देखने को मिली। फिल्म के निर्देशन, पटकथा, संवाद और लंबाई को लेकर सभी ने अपनी ज़ुबान हिला-हिला कर आशुतोष को कोसा। ये आलोचक भूल गए कि जो विषय परदे पर है वो अब से पहले अनछूआ था। जो किरदार आंखों के सामने हैं उनसे ये फिल्म पंडित खुद भी अंजान थे। क्या ये बड़ी बात नहीं कि श्रीमान गोवारिकर ने ऐसे ग़ुमनाम नायकों को सामने लाने की कोशिश की जिनसे हमारा परिचय ही नही था। सूर्ज्यो सेन का ज़िक्र इतिहास की किताबों में चार लाइनों से ज़्यादा नहीं है। बाकी के किरदार तो छोड़ ही दीजिए... क्योंकि इनसे तो सभी अनजान थे। दर्शक भी इ
Uparyukt shbdchitra vakai sarahniye hi. Keep it up ! Well done 👍
ReplyDeleteThank you Didi
DeleteGood
ReplyDeleteThank you Sudhir Bhai
DeleteWah !!! Very well written... Maza aa gaya pad ker
ReplyDeleteThank you Shivani
DeleteShandaar Bhai Sahab
ReplyDeleteThank you Deepak Dost
DeleteBahut badiya Dilip Bhai,
ReplyDeleteBahut badiya Dilip Bhai,
ReplyDeletethank you Jagrat Bhai...
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