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"धोबी घाट" एक अनूठा एहसास


"धोबी घाट" एक एहसास है… कभी ख़ुद पर गुज़रने वाली तन्हाई का तो कभी बेवजह बेमतलब की ख़ुशियों का। किरण राव की ये फिल्म हिंदी फिल्मों के अब तक के सारे फॉर्मुलों से अलग हटकर इंसानी जज़्बातों को उकेरती हुई अपने हर फ्रेंम में बदलते रिश्तों के मायने दिखाती है। "धोबी घाट" उन सभी छोटे-बड़े फिल्ममेकर्स के लिए एक सबक है जो अच्छी और विश्वस्तरीय फिल्में बनाना चाहते हैं मगर नाकाम होने के डर से अपनी सोच को पर्दे पर नहीं उतार पाते। हिंदी सिनेमा बदल रहा है और हमारी इस सोच को ये फिल्म और पुख़्ता करती है। फिल्म किस कदर प्रयोगवादी और सरल है इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि "धोबी घाट" देखने के बाद उत्साहित होकर मेरे एक मित्र की प्रतिक्रिया आई "मन में आ रहा है कि अपना डिजी कैम उठाकर वो सब शूट करूं जो मैं बरसो से करना चाहता हूं" मैनें पूछा "देखेगा कौन? उसका जवाब आया "यू ट्यूब पर अपलोड करूंगा लोग देखेंगे फेसबुक पर मेरे दोस्त देखेंगे" सच मानिए मुझे अब लगता है सचमुच कुछ बेहतर होगा। ऐसी फिल्में हमारे सिनेमा को गहराई देंगी। और उन बहुत से लोगों को रास्ता दिखाएगी जो कुछ नया करना चाहते है। फिल्म देखकर सही मायनों में लगता है कि अच्छी और दिलचस्प कहानियां हमारे आस-पास ही बिखरी होती है। बस ज़रूरत है उन्हे पर्दे पर एक मौका देने की। अगर दिमाग़ में हमेशा मुग़ल-ए-आज़म बना के चलेंगे तो कई सुंदर और सहज कहानियां छूट जाएगी। हमें ज़रूरत है आस-पास बिखरी कहानियों को सहेजने की। फिल्म को लेकर दर्शकों की प्रतिक्रिया मिली जुली रही। वैसे पसंद-नापसंद अलग बात है... मैं ख़ुद भी अगर फिल्म का रीव्यू कर रहा होता तो इसके मनोरंजक न होने की वजह से दो स्टार काट लेता। लेकिन थोड़ा ऊपर उठकर सोचूं और विश्व सिनेमा की कुछ बेहतरीन फिल्मों को याद करूं तो लगता है हर चीज़ मनोरंजक हो जरूरी नहीं। फिल्म की रिलीज़ से पहले अपने हर एक इंटरव्यूह में आमिर ख़ान ने साफ़ शब्दों में कहा था कि ये फिल्म रेग्यूलर बॉलीवुड दर्शकों को पसंद नहीं आएगी। हो भी वैसा ही रहा है फिल्म एक ख़ास दर्शक वर्ग को पसंद आ रही है। ये वो दर्शक है जो कुछ अलग और दिलचस्प देखने के लिए वर्ल्ड सिनेमा की ओर रुख़ करते हैं। मुंबई में रहने वाले चार अलग-अलग लोगों की ज़िंदगी को बयां करती ये फिल्म ज़िंदगी का अकेलापन भी दिखाती है और अचानक आने वाला उत्साह भी। मुन्ना के किरदार में प्रतीक बब्बर सबसे आगे निखर कर आए है। एक निचले तबके के युवा के सपने, झीझक, खीझ और रुमानियत को उन्होंने बेहतरीन तरीके से परदे पर उतारा है। शाय के रोल में मोनिका डोगरा ताज़गी का का एहसास कराती है। बेहद नैसर्गिक अभिनय और उतनी ही ख़ूबसूरत। यास्मीन के किरदार में छली गई एक युवती का दर्द है। वहीं पेंटर अरूण के किरदार में आमिर ने अपने परफेक्शन को कायम रखने की पूरी कोशिश की है। आप अगर फिल्म देखते वक्त ख़ुद को किसी एक किरदार में ढाल कर देखे तो बहुत मज़ा आएगा। वैसे फिल्म की कमज़ोर कड़ी आमिर ख़ान ही है। अन्होंने किरदार में रहकर बहुत ही अच्छा अभिनय किया है। लेकिन दर्शकों की अपेक्षाएं अपने प्रिय सुपरस्टार से कुछ ज़्यादा की थी। शायद 3 इडियट्स से भी ज़्यादा मनोरंजन की। ये इस किरदार की ख़ासियत है जो अनमनी सी लगती है। अगर आमिर को अलग रखकर इस किरदार को समझे तो ये किरदार ख़ुद से नाराज़ और नाशाद है। हर चीज़ के लिए उसके रवैया अनमना और झुंझलाया हुआ है। आमिर ने तो बस इसे जस का तस प्रस्तुत कर दिया। फिल्म के संवाद वैसे ही है जैसे आम ज़िंदगी में बोले जाते है। यहां आमिर के बारे में एक बात गौर करनी होगी। अपनी अब तक की फिल्मों में आमिर एक महान Protagonist बने नजर आए हैं। जो अपने आस-पास मौजूद आम लोगों को कुछ बड़ा करने के लिए प्रेरित करते हैं। फिर चाहे सरफ़रोश हो, लगान हो, रंग दे बसंती हो या फिर 3 इडियट्स। हमें आदत है उन्हें परदे पर बड़ा काम करते देखने की। वहीं ”धोबी घाट” में एक संजीदा लेकिन ख़ुद से असंतुष्ट पेंटर के किरदार में वो दर्शकों को शायद हज़म न हुए हो। असल में आमिर ने जान बूझकर अपने स्टारडम से निकलने का प्रयास किया है जो शायद ख़तरनाक हो सकता था। लेकिन कुछ अलग और नया करना उनकी आदत में शुमार है। और तय है वो आगे भी इससे बाज़ नहीं आएंगे। वैसे मुंबई को वास्तविकता के साथ प्रस्तुत करने के लिए किरण राव और उनकी तकनीकि टीम बधाई की पात्र है। कुल मिलाकर “धोबी घाट” एक नया और यादगार अनुभव है।

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