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दिलीप को दिलीप का सलाम...


कुछ ठीक-ठीक मालूम नहीं... याद नहीं पड़ता, मगर इतना तय है कि मैं तीसरी या चौथी जमात में रहा होऊंगा। एक शाम अपने ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर कोई फिल्म देख रहा था। एक बेहद ख़ूबसूरत नौजवान... जो शराब के नशे में धुत्त किसी का नाम लिए जा रहा था... आख़िर में बड़ी तकलीफ़ के साथ उसकी सांसे उसका साथ छोड़ जाती है। 10 साल बाद उसी फिल्म को दोबारा टीवी पर देखा.... तब तक समझ जवां हो चुकी थी और कुछ मैं भी। दोस्तों वो फिल्म थी "देवदास" और वो शख़्स थे महान अदाकार दिलीप कुमार साहब। दिलीप साहब ने इतनी शिद्दत से इस किरदार को जिया की हिन्दोस्तान में हर कोई इश्क में चोट खाए, अपनी दुनिया लुटा बैठे लड़के को देखकर उसे देवदास के नाम से बुलाता। ये कमाल था दिलीप कुमार की अदाकारी का। जहां ट्रेजडी की बात हो तो आज भी बस दिलीप कुमार ही का चेहरा सामने आता है। उनका वो रुक-रुक कर बोलना। डायलॉग्स के बीच में कुछ वक्त के लिए ठहर जाना... ये सारी बाते उनके संवादों और अदाकारी को गहराई देती है। फिल्म "मधुमती" तो याद होगी आपको... वो गीत "सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं" किस तरह चेहरे पर मुस्कुराहट लिए दिलीप साहब गाने के एक-एक बोल को नए आयाम देते है। और कितनी आसानी से हर शब्द के साथ चेहरे पर भाव बदलते हैं। वहीं इसी फिल्म के दूसरे गाने "दिल तड़प तड़प के कह रहा है" को भी तो याद कीजिए। हाथों में तिनके लिए कभी उनसे खेलते और कभी वैजयंतीमाला को देखते युसुफ़ साहब का अंदाज़ कितना रुमानी लगता है। बाद में इन्हीं अदाओं को हम और आप मियां शाहरूख़ ख़ान के अभिनय में देखते है। रोमांस की बात निकली है तो "अमर" फिल्म का ज़िक्र आना ज़रूरी है। मधुबाला के साथ दिलीप का हर एक सीन कितनी रूमानियत समेटे है। वहीं इसी फिल्म में साहब का एक दूसरा पहलू भी देखने को मिलता है जो कि कुछ ग्रे शेड लिए हुए था। निम्मी के साथ जिस्मानी संबंध बनाने से पहले उनकी आंखों में उतरी वहशियत को देखिए... वो सिर्फ आंखों से सब ज़ाहिर कर जाते है। उन्हें न तो हीरोईन के कपड़े अलग करने की ज़रूरत पड़ी ना ही छीना झपटी करने की। ग्रे शेड की बात निकली है तो "अंदाज़" को कैसे भूला जा सकता है। 1948-49 के समय की इस फिल्म में दिलीप लगभग नेगेटिव किरदार में ही थे। एक जूनूनी आशिक के रोल में उन्हें देख कर जिस्म के रोएं-रोएं खड़े हो जाते है। आप इसी किरदार को बाद में और बढ़कर शाहरूख की "बाज़ीगर" या "अंजाम" में देखते है। दिलीप साहब अपने दौर में अदाकारी के नए-नए आयाम बनाते रहे जिन्हे बाद के सभी अभिनेताओ ने दोहराया। अगर ट्रेजिक और रुमानी किरदारों से अलग हटकर साहब के मज़ाहिया किरदारों की बात करे तो ज़ेहन में सबसे पहले "राम और श्याम" आती है। इस तरह के दो जुदा किरदारों को आज तक उनसे बेहतर किसी ने नहीं निभाया जबकि कोशिश कईयों ने की। "नया दौर" का खिलंदड़ शंकर... जो तांगा चलाते-चलाते कब आम लोगों का नायक बन जाता है पता ही नहीं चलता। दिलीप कुमार द्वारा निभाया गया शंकर का किरदार अंधाधुंध हो रहे मशीनीकरण के खिलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करता है और उतर आता है अपने मालिकों से मैदान में दो-दो हाथ करने। इंसान और मशीन के बीच जंग पर बनी इस फिल्म में दिलीप पूरी तरह से फिल्म के हर फ्रेम पर अपनी छाप छोड़ गए है। ऐसे ही "गंगा-जमुना" में निभाया डकैत का किरदार जो बाद में कितने अभिनेताओं के लिए प्रेरणस्त्रोत बना। फिल्म में दिलीप साहब ने क्या ख़ूब भोजपुरी ज़ुबान बोली हैं... आप सोच भी नहीं सकते की परदे पर इतनी शानदार भोजपुरी बोलने वाला शख़्स असल में ख़ालिस उर्दू बोलने वाला पठान है। ऐसा सिर्फ दिलीप ही कर सकते हैं वरना कितने अभिनेता और हैं जो परदे पर अपना गंवई अंदाज़ दिखाने उतरे, मगर कोई भी दिलीप साहब के स्तर को नहीं छू पाया। परदे पर उनकी मेहनत साफ़ नज़र आती है। दरअसल किरदार को गहरे से समझ लेना और उसे अपने में उतार लेना उनकी ख़ासियत रही है। एक हद तक आमिर ख़ान और कमल हासन में भी ये बात नज़र आती है। बाकी भारतीय अभिनेता तो अपने किरदार को ही नहीं समझ पाते। स्क्रिप्ट में किरदार कुछ और होता है तो परदे पर कुछ और हो जाता है। दिलीप साहब ने इन बातों को हमेशा ध्यान में रखा... वो बारीक नज़र रखते थे। फिल्म "सौदागर" में वो कितनी सहजता से हरियाणवी बोलते नज़र आते हैं। वहीं "मुग़ल-ए-आज़म" में एक शहज़ादे की भूमिका को कितनी ख़ूबसूरती से पेश करते है। "सगीना" में एक मजदूर नेता का किरदार जो किस तरह कम्यूनिस्ट नेताओं के जाल में फंस जाता है। इस फिल्म में वो अपने किरदार की उलझनों को कितने सुलझे हुए तरीके से निभा गए। दोस्तों अगर बात करने बैठे तो ऐसे ही और कई फिल्मों का ज़िक्र आते जाएगा और उनके लिए मेरे शब्द कम पड़ जाएंगे। अब यहीं रूकना होगा... लेकिन जाने से पहले दिलीप साहब को उनके 88 वें जन्मदिन की बहुत-बहुत बधाई।

Comments

  1. दिलीप साहब के बारे में बहुत ही अच्छे से आप ने यहाँ लिखा है..वाकई में उनके स्तर को कोई छू नहीं पाया है ..जैसे संगीत की दुनिया में लता जी हैं विअसे ही अभिनय कि दुनिया में दिलीप साहब का मुकबला नहीं .. मुझे फिल्म देवदास में उनका अभिनय सबसे प्रभावी लगा .
    -------
    क्रिएटिव मंच आप को हमारे नए आयोजन
    'सी.एम.ऑडियो क्विज़' में
    रविवार, 12 दिसंबर, प्रातः 10 बजे भाग लेने के लिए
    आमंत्रित करता है.
    आभार

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  2. शुक्रिया... लेख पढ़ने के लिए और अपनी कीमती टिप्पणी देने के लिए।

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