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माय नेम इज़ ख़ान: रीव्यू



MY NAME IS KHAN में रिज़वान ख़ान हमेशा कहता हैं कि, दुनिया में दो ही किस्म के इंसान होते हैं, एक अच्छे और दूसरे बुरे। ठीक ऐसे ही हमारी फिल्में भी दो ही तरह की होती है, या तो अच्छी या बुरी। और ये कहना बिल्कुल भी ग़लत नहीं होगा कि MY NAME IS KHAN एक अच्छी फिल्म है। शुरूआत कहानी से करते है...

कहानी....
फिल्म का पहला सीन शाहरूख़ के साथ हुई न्यूयॉर्क एयरपोर्ट कंट्रोवर्सी जैसा ही है। मुस्लिम होने की वजह से एयरपोर्ट पर तलाशी के दौरान रिज़वान अपनी फ्लाइट मिस कर देता है। रिज़वान का मकसद है अमेरिकन प्रेसिडंट से मिलना और बताना कि MY NAMS IS KHAN AND I’m not a terrorist. लेकिन प्रेसिडेंट से मिलना इतना आसान नहीं। कहानी फ्लैशबैक में जाती है। बचपन से ही एस्पर्गर सिंड्रॉम का शिकार रिज़वान अपनी मां की मौत के बाद अपने छोटे भाई के पास यूएस आ जाता है। यहां उसकी मुलाकात मंदिरा से होती है, फिल्म के एक सीन में रिज़वान कहता है कि वो औरों से अलग है... वो अपने जज़्बात बयां नहीं कर सकता... लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि उसे पागल समझा जाए... वो बहुत ही इंटेलिजेंट है। मंदिरा से रिज़वान को प्यार हो जाता है.. थोड़ी ना नुकुर के बाद इज़हार और फिर शादी... मां को दिए वादे के मुताबिक रिज़वान ख़ान एक ख़ुशहाल ज़िंदगी जीने लगता है। लेकिन इसके बाद अचानक 9/11 का हादसा घटता है और जैसे सब कुछ बदल जाता है। रिज़वान को मुस्लिम होने की कीमत चुकानी पड़ती हैं। उससे मंदिरा भी अलग हो जाती है। इसके बाद रिज़वान अमेरिकन प्रेसिडेंट से मिलने एक लंबे सफ़र पर निकलता है सभी की मदद करता हुआ, हर जगह प्यार बांटता हुआ... वो अमन का पैगम्बर बन जाता है। शिबानी भटिजा की ये कहानी कई मोड़ों से गुज़रती हैं... कभी ठहर जाती है तो कभी रफ्तार पकड़ती है। कहीं पर ये आंखें नम कर देती है तो कहीं पर गुगुदाती भी है।

परफॉर्मेंस...
शाहरूख़ ख़ान ने रिज़वान के किरदार से अपनी शाहरूख़नेस को दूर ही रखा है। और बतौर एक्टर ख़ुद उनके लिए और इस फिल्म के लिए ये
बहुत अच्छा रहा है। जज़्बाती तौर पर ख़ुद को एक्सप्रेस न कर पाने वाले इस किरदार को देख कर फॉरेस्ट गम्प के टॉम हैंक्स और I am Sam के Sean Penn की याद आ जाती है। लेकिन फिर भी शाहरूख़ की एक्टिंग अपने आप में कुछ अलग ही एहसास देती है। मंदिरा के रोल में काजोल ने अपना काम बख़ूबी किया है। वैसे भी जब वो शाहरूख़ के साथ होती है तो उनकी कैमिस्ट्री लाजवाब ही रहती है। जिमी शेरगिल के साथ ही फिल्म के बाकी सारे कैरेक्टर अपनी जगह फिट है।

म्यूज़िक..
शंकर एहसान लॉय का म्यूज़िक मैलोडियस है। चाहे वो सजदा हो या फिर तेरे नैना... ये दोनों ही गाने दिल को छू जाते है। वहीं रिज़वान के लंबे सफ़र को बयां करने वाला नूए ए ख़ुदा भी लाजवाब है। नीरंजन अय्यंगर की लिरिक्स सुनने लायक है।

सिनेमैटोग्राफी
रवि के. चंद्रन की सिनेमैटोग्राफी ख़ूबसूरत हैं। अमेरिका के अलग-अलग शहरों के लोकेशन दिल को छूते है।

डायरेक्शन
करण जौहर ने अब तक जिस तरह की फिल्में बनाई है उसके हिसाब से देखें तो माय नेम इज़ ख़ान बहुत अलग है। करण ने अपने फील गुड सिनेमा को ताक पर रख कर एक रिस्क लिया था लेकिन ये रिस्क बतौर डायरेक्टर उनके लिए फायदे का सौदा साबित हुआ। कई सारे मोड़ों से गुज़रती इस कहानी को उन्होंने संजीदगी के साथ डायरेक्ट किया है। कुछ कुछ होता है और कभी अलविदा न कहना जैसी फिल्मों के लिए उन्हें काफी क्रिटिसाइज़ किया गया था लेकिन अब करण मैच्योर हो गए है।


ये फिल्म यूएस में 9/11 के हादसें के बाद एक ख़ास कम्यूनिटी के लिए बदली सोच को दिखाती है। फिल्म एक बड़ा मैसेज देती है....वो भी पूरे एंटरटेनमेंट के साथ। कुल मिलाकर माय नेम इज़ ख़ान पूरे परिवार के साथ देखे जाने वाली फिल्म है। इस फिल्म को हमारी ओर से चार स्टार।

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