
बदन पर शेरवानी... हाथों में गजरा... और लड़खड़ाते कदमों के साथ शहर में किसी तवायफ के कोठे पर मुजरा सुनने पहुंचे नवाब साहब। हिंदी सिनेमा में अगर मुस्लिम किरदारों को याद करें तो.... ज़ेहन में अक्सर बस ये ही एक तस्वीर उभरती है। ये किरदार आज के ख़ान की तरह नहीं और न ही 3 इडियट्स के फरहान की तरह है। 1950 और 60 के दशक के ये मुस्लिम किरदार बेशक अपने दौर की कहानी पूरी ईमानदारी से नहीं कहते मगर फिर भी इनकी अहमियत कम नही होती। अगर आप बॉलीवुड फिल्मों के शुरूआती दौर में मुस्लिम किरदारों को देखें, तो ये कभी अक़बर बने नज़र आते है तो कभी सलीम या शाहजहां। यहां से थोड़ा आगे बढ़े तो इनकी नवाबी शान-ओ-शौकत और जलवा फिल्मों में ख़ूब दिखाई देता है। शायद लेजेंडरी डायरेक्टर गुरूदत्त पर भी ये ही जलवा असर कर गया, तभी वो फिल्म चौदहवी का चांद में लखनऊ के मुस्लिम कल्चर और किरदारों को इतना करीब से छू पाएं। हालांकि गुरू दत्त की ही एक और फिल्म प्यासा में एक मालिश वाले सत्तार का किरदार कुछ दूसरी ही तस्वीर पेश करता है। इस पूरी फिल्म में बस सत्तार ही एक किरदार है जो दर्शकों को मुस्कुराने का मौका देता है। फिल्म काबुलीवाला में बलराज साहनी का पठानी अंदाज़ भी बिल्कुल अलग कहानी कहता है। 70 और 80 के दशक में बनी मसाला फिल्मों में मुस्लिम किरदारों पर भी नया रंग चढ़ा नज़र आता है। ज़जीर का शेर ख़ान अपनी यारी को ईमान मान कर उस पर जान देने को भी तैयार है तो वहीं अमर और एंथनी के बीच अक़बर अपनी शेरो-शायरी और कव्वाली से पर्दानशीनों के होश उड़ाता नज़र आता है।
इसी दौर में पाकीज़ा और उमराव जान जैसी फिल्मों में तवायफ़ो की ज़िदगी बयां होती है तो वहीं निकाह मुस्लिम समाज में तलाक़ जैसे संजीदा मुद्दे को दिखाती है। 90 के दशक के बीच में बॉलीवुड फिल्मों में कश्मीर और आतंकवाद ने अपनी जगह बना ली। जिससे फिल्मों में मुस्लिम किरदार भी पूरी तरह बदल गए। इनमें ज़्यादातर आतंकवादी बने नज़र आने लगे। मणिरत्नम की रोज़ा और बॉम्बे इसका बेहतरीन नमूना है। सरफ़रोश के इन्सपेक्टर सलीम और मिशन कश्मीर जैसी फिल्मों में मौजूद मुस्लिम किरदारों को देश के लिए अपनी वफ़ादारी साबित करने की ज़रूरत पड़ती है। इसी दौरान फिज़ा में अपने आतंकी भाई को तलाशती बहन और महेश भट्ट की ज़ख़्म में मुस्लिम मां से जन्में बेटे की संजीदा कहानी उभर कर आती है। मौजूदा दशक की बात करें तो नागेश कूकनूर की इक़बाल सिल्वरस्क्रीन पर आतंकी किरदारों को ख़त्म एक मु्स्लिम युवा के सपनों को दिखाती है। जबकि शिमीत अमीन की चक दे इंडिया में एक बार फिर शक़ के दायरे में घिरे मुस्लिम खिलाड़ी को देश के लिए अपनी वफ़ादारी साबित करने की ज़रूरत पड़ती है। लगभग 100 साल के हो चले हिंदी सिनेमा में हमेशा ही मुस्लिम किरदार अपनी ख़ास पहचान के साथ ही नज़र आते रहे है। लेकिन 3 इडियट्स में फऱहान का किरदार ज़रूर दूसरे आम लोगों की तरह नज़र आता है। शायद माय नेम इज़ ख़ान बॉलीवुड में मुस्लिम किरदारों के लिए एक नए दौर की शुरूआत कर सके।
aapne kaafi sahi aur achha likha hai...lagta hai filmei kaafi qareeb se dekhte hain aap
ReplyDeleteदोस्त तुम लगातार सोच रहे हो, लिख रहे हो... अच्छा लगा।
ReplyDeleteअच्छा लेख। शुभकामनाएं ।।