
मैं सिनेमा की ओर कब आकर्षित हुआ या फिल्मों से मेरा पहला परिचय कब हुआ ? आज जब किसी फिल्म की आलोचना करने जाता हूं तो सबसे पहले ये ही सवाल आता है कि ये काम करने के लिए मैं कितना मौजूं शख़्स हूं ? महज़ फिल्में देख-देख कर या फिर दो साल तक बॉक्स ऑफिस को प्रोड्यूस कर क्या मैं इतना क़ाबिल हो गया हूं कि किसी फिल्म को अच्छा या बुरा कह सकूं। साहब इस अहम सवाल का जवाब बहुत पीछे जाने पर मिलता है। शायद मेरे जन्म से भी पहले... ये तय हो गया था कि मैं ज़िंदगी में क्या करूंगा... क्या बनूंगा। मैं मध्य प्रदेश के छोटे से कस्बे सारनी का रहने वाला हूं। मां से सुना है कि मेरे पिता अपनी आठ घंटे की सरकारी नौकरी के बाद बचा हुआ समय सिर्फ और सिर्फ फिल्में देखने में बिताया करते थे। अमिताभ बच्चन हो या धर्मेंद्र... या फिर जीतेंद्र या विनोद खन्ना ही क्यों ना हो.... पापा ने किसी की फिल्म नहीं छोड़ी। लेकिन उन पर सबसे ज़्यादा असर था दिलीप कुमार का और ये असर कितना था आप मेरे नाम से ही जान जाएंगे.... जी हां मेरा नाम दिलीप साहब के लिए मेरे पापा की दीवानगी का सबूत है। मैने बचपन एक संयुक्त परिवार में बिताया... जहां मैं अपनी दो बुआओं से सिनेमा पर ताज़ातरीन ख़बरें सुना करता था... जिसे आजकल गॉसिप्स कहा जाता है। अपने मोहल्ले की कुछ और महिलाओं के साथ बैठकर मेरी दोनो बुआएं सिर्फ ये ही एक काम किया करती थी और मैं सुना करता था। ये सिनेमा के लिए मेरी दीवानगी की शुरुआत थी जो दिन-ब-दिन और ज़्यादा बढ़ती गई। मेरे कस्बे से मुंबई की दूरी कई सौ किलोमीटर है.... बावजूद इसके कब मुंबईया बोलचाल का असर मेरे ऊपर पड़ने लगा पता ही नहीं चला। आठवी जमात पास करने के बाद मेरे कपड़े पहनने से लेकर चलने और बोलने तक में अमिताभ बच्चन का असर साफ़ नज़र आने लगा.... चाल में अकड़ थी... और लिबास कुछ-कुछ एंथनी भाई सा था। मैं सोचता कि पापा ने मेरा नाम दिलीप कुमार की जगह अमिताभ बच्चन क्यू नहीं रखा। (ये तब कि बात है... आज मैं अपने नाम से बहुत ख़ुश हूं) बचपन से ही मुझे अख़बार पढ़ने का चस्का था। उसमें भी ज़्यादातर सिनेमाई लेख ही पसंद आते। 1997 में पहली बार जयप्रकाश चौकसे को परदे के पीछे में पढ़ा.... ये लेख फिल्म बॉर्डर पर था। सच कहूं फिल्मों पर इतनी सीधी और सटीक टिप्पणी करने वाला शख़्स मैने दूसरा कोई नहीं देखा। वो न जाने कैसे फिल्मों को राजनीति, समाज या मनोविज्ञान से जोड़ देते हैं (जबकि मैं आज भी कोशिश में ही हूं) इसके बाद चौकसे जी के लेखों का मैं नियमित पाठक बन गया और आज भी हूं। मैनें उनसे ही सीखा कि बेहतर फिल्म समीक्षा कैसे की जाती है। ये बात अलग है कि एक राष्ट्रीय चैनल में फिल्म क्रिटिक्स के तौर पर काम करने के बावजूद वो अपने इस एकलव्य से अंजान है। 17 साल की उम्र में घर से बाहर निकलने के बाद मैनें भोपाल और इंदौर में पढ़ाई करते हुए सैंकड़ों फिल्में देख डाली। टीवी पर देखी फिल्मों की बात करूं तो ये संख्या मेरी सोच से बाहर हो जाएगी (आज फिल्म आलोचक होने के बावजूद मैं इतनी फिल्में नहीं देख सकता) इसी दौरान ब्लैक एंड व्हाइट सिनेमा की ओर झुकाव हुआ और गुरु दत्त को जाना। बचपन में घर पर अक्सर उनकी फिल्मों और ज़िंदगी पर बातें होते रहती थी। ख़ास कर उनकी फिल्मों के गानों पर। मगर जवानी में उन्हें ज़्यादा बेहतर ढंग से जाना। रहीं बात राजकपूर की तो मेरे पापा मुझे साथ बिठा कर उनकी अधिकतर फिल्में दिखा चुके थे तो उनके सिनेमा से मैं पहले ही अच्छी तरह वाकिफ़ था। बिमल रॉय को भी इसी दौरान बंदिनी और सुजाता देखकर जाना और समझा। सिनेमा के लिए मेरी सोच और समझ धीरे-धीरे बढ़ने लगी थी। मैं तय कर चुका था कि जो भी हो मुझे फिल्म डायरेक्टर ही बनना है। इंजीनियरिंग टेस्ट में कुछ कमाल नहीं दिखा पाया था खीझ कर आर्ट की ओर गया। बीए करने के दौरान आईएएस बनने का ख़्याल आया और पहला टेस्ट देने के बाद ही पता चल गया कि अपने बस की बात नहीं। ये दौर बड़ा कठिन था सारे दोस्त जानते थे कि दो-एक साल बाद वो कहां होंगे लेकिन मैं अब तक अपनी मंज़िल से दूर था। या यू कहिए कि मंज़िल जानता था मगर सोच में था कैसे पहुंचा जाए। एक दिन सब कुछ ठान कर पापा से इजाज़त मांगी फिल्म डायरेक्शन का कोर्स करने की ये सोचकर की आसानी से मिल जाएगी। मगर फिल्मों की दीवानगी अलग बात है और फिल्में बनाने की सोच अलग। पापा का जवाब ना में मिला जो कि मेरे लिए बेहद निराशा वाली बात थी। दो साल सिर्फ क्या करूं इसी उधेड़ बुन में निकल गए। फिर फिल्म पत्रकारिता में जाने का ख़्याल आया ये सोच कर कि फिल्मों पर लिखते-लिखते और काम करते हुए शायद आगे कहीं रास्ता मिले मैने ये ही काम करने की ठानी। मम्मी की ज़िद पर पापा से भी इजाज़त मिल गई (इसी दौरान मैने अपनी डायरी में लिखा की बाप से बड़ा आलोचक और मां से बड़ा समर्थक कोई और नहीं) कुछ एक संस्थानों में टेस्ट देने की बात थी जो कि मुझे कभी भी पसंद नहीं रही। ख़ैर किसी तरह दिल्ली में दाखिला मिला और मैं यहां पहुंचा। अपने संस्थान में पढ़ते हुए ये पता चला कि मुझमें सिर्फ सिनेमा की दीवानगी ही नहीं बल्कि समझ भी है जो कि आम सिनेप्रेमी से बहुत अलग है। दो साल दिल्ली में गुज़ारने के बाद (जिसमें आठ महीने एक बेरोज़गार के तौर पर) मुझे पहली नौकरी मिली वो भी ज़ी बिज़नेस में। पहला शो बॉक्स ऑफिस था जिसमें कुछ हफ्ते काम करने के बाद ही मैं उसका प्रोड्यूसर बन गया। बॉक्स ऑफिस करने के दौरान ही मुझे हॉलीवुड और दूसरे देशों के सिनेमा की ज़्यादा जानकारी मिली (जो पहले कुछ एक साइंस फिक्शन और स्टार मूविज़ पर देखी फिल्मों से ज़्यादा नहीं थी) आज मुझे काम करते हुए दो साल होते आए है लेकिन मैं मानता हूं ये मेरी शुरुआत ही है। क्योंकि मैने ख़्वाबों में जो मंज़िल देखी थी वो अब भी पहुंच से दूर है लेकिन अच्छी बात ये है कि मैं रास्ते में हू... उस रास्ते पर जो मेरी मंज़िल पर ही जाता है। आज कल ख़ूब सिनेमा देखता हूं.... बड़े-बड़े निर्देशकों और अभिनेताओं की कमियां निकालता हूं... देसी और विदेशी फिल्मकारों को तौलता हूं... लेकिन सवाल वो ही है.... क्या मैं इस काम के लिए मौजूं शख़्स हूं?
दिलीप कापसे
सिनेमा के प्रति आपकी दीवानगी किसी से छुपी नहीं है....इसीलिए मै पुरे यकीं के साथ कह सकता हू की आप एक अच्छे आलोचक साबित हो सकते है....
ReplyDelete