साहित्य और सिनेमा दोनों ही जगह साइडकिक की एक लम्बी परंपरा रही है। साइडकिक यानी वो किरदार जो हरदम नायक के साथ नज़र आता है। कभी वो मज़ाक का पात्र बनता है तो कई मौकों पर नायक का एकलौता मददगार भी साबित होता है। शेरलॉक होम्स के साथ डॉक्टर वॉटसन और बैटमैन के साथ रॉबिन तो कभी न भूलने वाले साइडकिक है जो कई बार कथा के मुख्य नायक पर भी भारी पड़े हैं।
हिंदी सिनेमा में दिलीप कुमार के साथ मुकरी और शाहरुख़ ख़ान या गोविंदा के साथ जॉनी लीवर ने साइडकिक की भूमिका को बख़ूबी अंजाम दिया है। फिल्म ‘अंगूर’ में संजीव कुमार के साथ देवेन वर्मा ख़ालिस क्लासिक साइडकिक के रूप में प्रस्तुत हुए, लेकिन जॉनी वॉकर सर्वश्रेष्ठ रहे।
गुरुदत्त के सामने उन्होंने कुछ इतने कमाल के किरदार निभाएं हैं जो अमिट है। जॉनी होते तो 11 नवंबर को 97 साल के हो जाते। मामूली बस कंडक्टर से हिंदी सिनेमा के महानतम कॉमेडियन बनने की उनकी कहानी दिलचस्प है लेकिन बात करते हैं जॉनी के उस अंदाज़ की जिसके लिए उन्हें सब इतना पसंद करते हैं। जॉनी वॉकर हमेशा ऐसे ही रहमदिल, मज़ाकियां और नायक की मदद करने वाले किरदार में आते और अपनी भाव-भंगिमाओं से परदे पर ऐसा माहौल रचते कि उन्हें देखते ही दर्शकों के चेहरे पर एक लम्बी मुस्कान तैर जाती।
फिल्म ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’ में जॉनी का किरदार निभा रहे जॉनी वॉकर और प्रीतम बने गुरुदत्त के बीच एक सीन है। बीमार गुरुदत्त को देखने आए डॉक्टर की फीस देने के लिए जॉनी अपने कोट की जेब में हाथ डालते हैं और तभी गुरु की तिरछी नज़र अपने दोस्त की जेब पर जाती है। ये देखकर जॉनी अपना हाथ जेब में ही रोक देते हैं और गुरु से कहते है “मुंह उधर...” इसके बाद वो डॉक्टर की फीस चुकाते हैं और मकान मालकिन टुनटुन के सामने थोड़ा-बहुत ड्रामा कर अपने दोस्त के लिए कुछ दिनों के खाने का इंतज़ाम भी कर देते हैं।
फिल्म के एक दूसरे सीन में जॉनी अपनी कुलिग जूली यानी यास्मीन को रिझाने के लिए एक होटल में उनके साथ बैठे हैं तभी भूखे गुरुदत्त वहां आ पहुंचते हैं। कबाब में हड्डी देखते ही जॉनी फौरन कुछ रुपये और सिनेमा की टिकट देकर गुरुदत्त को चलता कर देते हैं। उन्होंने एक ऐसा किरदार निभाया जो अपने ग़रीब और बेरोज़गार दोस्त को पैसे उधार देने से पहले तो बड़ी ना-नुकुर करता है, लेकिन उसकी मजबूरी देख आख़िर में अपनी ज़ेब ढीली कर देता है।
हम सभी की ज़िंदगी में एक न एक जॉनी हुआ करता है। ये किरदार इतना असल है कि हमारा मन परेशानी में उलझे नायक की पीड़ा को भूलकर उसके सहनायक या साइडकिक के साथ हो लेता है। कोई चार दशक बाद आई फिल्म ‘आशिक़ी’ में भी अपने दोस्त राहुल रॉय की हर कदम पर मदद करने वाले दीपक तिजोरी का किरदार हद दर्जे तक जॉनी से मेल खाता है।
‘तरकश’ में जावेद अख़्तर ने बताया है कि संघर्ष के दिनों में साथ रहने वाले एक दोस्त से किसी वजह से बातचीत बंद हो गई। उनकी हमेशा मदद करने वाला वो दोस्त जब भी बाहर जाता तो बिना बोले कमरे में कहीं कुछ रुपये रख जाता ताकि जावेद साहब का काम चलता रहे। जावेद साहब का वो दोस्त भी उनके लिए एक तरह से जॉनी ही था जिसे बोलचाल बंद होने पर भी ये ख़्याल रहता कि दोस्त कहीं भूखा न रह जाए।
आप जॉनी को फिल्म ‘प्यासा’ में देखिये, जहां वो एक मालिश वाले अब्दुल सत्तार की भूमिका में हैं। नायक विजय यानी गुरुदत्त का किरदार बेहिसाब संघर्ष, नाकामी और नकारात्मकता से गूंथा हुआ है। उसके आस-पास के किरदार भी एकदम धूर्त, चालाक और मतलबपरस्त हैं। गहरी उदासी से भरे नायक के साथ एक कोठेवाली की हमदर्दी तो है मगर दोस्ती जैसा कुछ सत्तार भाई से ही मिलता है। विजय से मिले गीत के बूते सत्तार का धंधा चमक जाता है और इस एवज में वो उसे फ्री की चंपी देने की पेशकश करता है। ज़माने के कड़वे अनुभव के बीच सत्तार का हल्का-फुल्का मज़ाक विजय के चेहरे पर हल्की सी हंसी पैदा करता है। ट्रैजेडी की महागाथा ‘प्यासा’ में वो छोटा सा सीन दर्शकों को कुछ पल की राहत दे जाता है।
मोहब्बत में नाकामी, बाप के ताने, परीक्षा में फेल होने या नौकरी की भयानक टेंसन पाले युवा अक्सर ही गली के छोर पर बैठे पानवाले, पंचर बनाने वाले या नाई की दुकान पर जा बैठते हैं। सबसे परेशान हो चुके युवाओं के लिए ये सभी किसी सत्तार भाई से कम नहीं होते। वो उनके दिल का हाल भी सुनते हैं और उनका उन्हें बहलाने की कोशिश भी करते हैं। नए-नए शायरों को उनकी उनकी वाहवाही भी इन्हीं लोगों से मिलती है।
अब फिल्म ‘चौदहवीं का चांद’ में मिर्ज़ा मसरद्दीक को याद कीजिए, जो रहमान और गुरुदत्त के तीसरे दोस्त हैं। गुरु और वहीदा की शादी में झूमते मिर्ज़ा की मसखरी और अदाएं आपको अपनी बारात में नाचते किसी करीबी दोस्त की याद दिला देगी। सभी मिर्ज़ा जैसा एक दोस्त ज़रूर चाहते हैं, जो ‘मेरा यार बना है दूल्हा’ गाते हुए नाचें, झूमें और ख़ुशियां मनाएं। इस फिल्म में एक ही औरत पर दिल हारे दो जिगरी दोस्तों के बीच बढ़ता तनाव दर्शकों के भी दिमाग़ पर ज़ोर डालने लगता है मगर मिर्ज़ा के आते ही जैसे सब हल्का हो जाता है।
फिल्म ‘आनंद’ में हम देखते हैं कि हर दूसरे आदमी में मुरारीलाल को तलाशने वाले राजेश खन्ना की तलाश भी ईसा भाई यानी जॉनी वॉकर से टकराते ही ख़त्म हो जाती है। आनंद जैसे बेहद मजबूत और नाटकीय किरदार के बीच भी दर्शक ईसा को नोटिस किए बिना नहीं रह पाते। एक ही मुलाकात में आनंद और ईसा के बीच एक मजबूत बॉण्ड बन जाता है। ज़िंदगी की इनिंग ख़त्म होने की तरफ बढ़ रहे आनंद को ईसा के प्ले के रिहर्सल के दौरान एक नया अनुभव होता है ठीक वैसे ही जैसे बुझती लौ को थोड़ा तेल मिलने पर होता है।
परदे पर कई अमर किरदारों के जानी दोस्त बनने वाले इस अभिनेता ने 29 जुलाई 2003 को रुख़्सत ली। हमेशा क्लीन कॉमेडी पर भरोसा रखने वाले बदरुद्दीन काज़ी उर्फ जॉनी वॉकर ने पूरे करियर में कोई डबल मीनिंग डायलॉग नहीं बोला। उन्होंने 300 से ज़्यादा फिल्मों में काम किया और इस बीच सेंसर बोर्ड ने कभी उनके डायलॉग की एक लाइन भी नहीं काटी।
#JohnnyWalker
ये 1994-95 के सीजन की बात है... मैं 6वीं क्लास में पढ़ रहा था। हमारी क्वार्टर के पास ही एक सरकारी स्कूल था जिसे पूर्वे सर का स्कूल कहा जाता था। झक सफ़ेद कपड़े पहनने वाले पूर्वे सर थोड़ी ही दूर स्थित पाथाखेड़ा के बड़े स्कूल के प्रिंसिपल केबी सिंह की नक़ल करने की कोशिश करते थें.. लेकिन रुतबे और पढाई के स्तर में वो कहीं भी केबी सिंह की टक्कर में नहीं थें। अगर आपने कभी किसी सरकारी स्कूल को गौर से देखा हो या वहां से पढाई की हुई हो तो शायद आपको याद आ जाएगा कि ज़्यादातर स्कूलों में ड्रेस कोड का कोई पालन नहीं होता। सुबह की प्रार्थना से ग़ायब हुए लड़के एक-दो पीरियड गोल मारकर आ जाया करते हैं। उनकी जेबों में विमल, राजश्री की पुड़िया आराम से मिल जाती है और छुट्टी की घंटी बजते ही बच्चे ऐसे क्लास से बाहर निकलते हैं जैसे कि लाल कपड़ा दिखाकर उनके पीछे सांड छोड़ दिए गए हो.. ऐसे ही एक सरकारी स्कूल से मैं भी शिक्षा हासिल करने की कोशिश कर रहा था... सितंबर का महीना लग गया था... जुलाई और अगस्त में झड़ी लगाकर पानी बरसाने वाले बादल लगभग ख़ाली हो गए थे। तेज़ और सीधी ज़मीन पर पड़ती चमकती धूप के कारण सामने वाली लड़कियों की क...
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