हिंदुस्तानी सिनेमा के बीते दो दशक। इन दो दशकों पर गौर करें तो पता चलेगा कि हमारा सिनेमा बहुत कुछ बदल चुका है और बहुत कुछ बदल रहा है। 80 के दशक के आख़िर में सड़कों पर मवालियों की तरह नाचने वाले गोविंदा और मिथुन की फिल्मों से लेकर 90 के दशक की लिजलिजी प्रेम कहानियों, बेतुके संवादों और हिंसा से भरी फूहड़ फिल्मों को हम बहुत पीछे छोड़ आए है। क्या बतौर फिल्म प्रेमी ये बदलाव हमारे लिए राहत देने वाले नहीं है। ज़रा उस दौर को याद कीजिए जब अक्सर फिल्मों में एक ख़ास तरह के डायलॉग सुनने को मिलते थे। “कुत्ते मैं तेरा ख़ून पी जा जाऊंगा” या “मैं तुम्हारे बच्चें की मां बनने वाली हूं” या “ये तो भगवान की देन है” या फिर किसी रेप सीन से पहले बोला जाने वाला मशहूर डायलॉग “भगवान के लिए मुझे छोड़ दो” आज इन्हे सुन कर कितनी हंसी आती है। “मरते दम तक”, “जवाब हम देंगे”, “हमसे न टकराना” और “आतंक ही आतंक” न जाने कितनी फूहड़ फिल्में उस दौर में आई थी। अब तो टीवी पर भी उन फिल्मों को देखने से बचा जाता है। एक्शन सीन में हीरो का ऊल्टे जंप मारना, मशीन गन की हज़ारों गोलियां खाली हो जाना लेकिन हीरो को एक भी गोली न लगना और न ज...