हाल ही में ट्रेन से मुंबई-दिल्ली का सफ़र करते हुए मेरी मुलाकात एक बुजुर्गवार से हुई। झुर्रियों से घिरे चेहरे पर उम्र का अनुभव समेटे वो शख़्स सफ़र की शुरूआत से ही एक अजीब ख़ामोशी लिए बैठा था। लेकिन जैसे-जैसे वक्त गुज़रता गया मुझे लगने लगा कि वो ख़ामोश तबियत का नहीं है बल्कि मेरी ही तरह अजनबी लोगों के बीच अपनी बात रखने के लिए एक मौके कि तलाश में है। जल्द ही अपनी रूख़ी और कहीं-कहीं दब जाने वाली आवाज़ में उसने मुझसे मेरा नाम पूछा। मेरे नाम बताने पर उसने मेरा काम पूछा। जब मैंने मेरा काम भी बता दिया तो उसके चेहरे का रंग अचानक बदल गया और मुझसे नज़रें फेर कर वो खिड़की से बाहर झांकने लगा। मैनें उससे इस बेरूख़ी का कारण पूछा... मगर वो कोई जवाब दिए बिना खिड़की से बाहर देखता रहा। थोड़ी देर चुप रहने के बाद वो दोबारा अपनी रूख़ी आवाज़ में मुझसे मुख़ातिब हुआ। "तुम्हें क्या लगता है... क्या आजकल अच्छी फिल्में बनती है?" सवाल मेरे लिए मुश्किल तो नहीं था मगर मैं जवाब देने के मूड में बिल्कुल भी नहीं था। दरअसल मैं नहीं चा...